Sunday 20 November 2016

म्यूटिनी मेमोरियल ( Mutiny Memorial ) Delhi


रहस्यमय (Haunted) म्यूटिनी मेमोरियल ( Mutiny Memorial ) : 
 सैन्य विद्रोह स्मारक, अजीत गढ़. नयी दिल्ली
         पिछले दिनों दिल्ली में प्रदूषण के कारण स्कूलों में छुट्टियां घोषित हुई लेकिन जुखाम-बुखार ने इस कदर घेरा की घर पर ही रहना पड़ा. छुट्टियों में दिन भर घर पर रहते हुए उकता गया तो बुखार में ही हिम्मत कर चल दिया एक ऐसे रहस्यमय स्मारक की ओर ! जिसे दिल्ली के भूतिया (Haunted) स्थानों में शुमार किया जाता है !
       जी हाँ ! कमला नेहरु रिज वन क्षेत्र में रानी झाँसी मार्ग पर बाड़ा हिंदुराव अस्पताल के दक्षिण में 500 मी. की दूरी पर सुनसान रिज इलाके में एक ऐसा ही ऐतिहासिक रहस्यमय किस्सों को समेटे हुए स्मारक है .. " म्यूटिनी मेमोरियल " अर्थात सैन्य विद्रोह स्मारक, अब परिवर्तित नाम " अजीत गढ़ " .
       30 मई से 20 सितम्बर सन 1857 के अंतराल में ब्रिटिश राज की ज्यादातियों के कारण उपजे जन असंतोष, जिसे व्यापकता व उग्रता के कारण भारत की आजादी का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नाम से जाना जाता है, को दिल्ली में अंग्रेजों की दिल्ली फील्ड फ़ोर्स द्वारा ब्रिगेडियर जनरल जार्ज निकोल्सन के नेतृत्व में कुचल दिया गया. इसके बाद पुरानी दिल्ली के प्रवेश द्वारों, कश्मीरी गेट व मोरी गेट पर निगरानी रखने के उद्देश्य से इस सुनसान रिज क्षेत्र में सैनिक छावनी बनायीं गयी थी..
      अंग्रेजों द्वारा पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट के माध्यम से जल्दबाजी में सन 1863 में “टेलर बैटरी “ ( तोपखाना इकाई ) के स्थान पर मजबूत पत्थर की चट्टान पर पांच फुट ऊंचे चबूतरे पर लाल बलुआ पत्थर से 29.5 मी. ऊंची, इस आलंकारिक अष्ट कोणीय मीनार को 8 जून से 7 सितम्बर 1857 के दौरान स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने में अंग्रेजों की दिल्ली फील्ड फ़ोर्स की तरफ से लड़े और मारे गए, घायल, व लापता, 2163 भारतीय तथा अंग्रेज अफसर व जवानों की औपनिवेशिक शक्तियों के प्रति वफादारी, बहादुरी व त्याग को भविष्य में स्मरण करने उद्देश्य से बनाया गया था. मीनार के अष्ट फलकों में लगे संगमरमर के शिलापट्टों पर अफसर व जवानों का विवरण अंकित है. मीनार में प्रवेश वर्जित है लेकिन पश्चिमी दिशा से प्रवेश कर घुमावदार सीढ़ियों के माध्यम से ऊपर तक पहुंचा जा सकता है. मीनार के शीर्ष पर क्रॉस बना हुआ है.
      औपनिवेशिक हिताकांक्षाओं को पोषित करते इस ऐतिहासिक संरक्षित स्मारक में अंग्रेजों की सेना, दिल्ली फील्ड फ़ोर्स के विरुद्ध लड़ रहे भारतीय नागरिकों को " शत्रु " के रूप में प्रस्तुत किया गया था लेकिन स्वतंत्रता उपरांत 15 अगस्त 1972 के दिन भारत सरकार द्वारा स्वतंत्रता की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर इस स्मारक पर नए शिलापट्ट लगाकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ रहे भारत माता के सपूतों को स्वतंत्रता के अमर शहीदों के रूप में उत्कीर्ण कर के सम्मान किया गया.
        रहस्यमय किस्सों से जुड़े होने के कारण यह स्मारक पर्यटकों के बीच कौतुहल का विषय भी बना रहता है ! ये किस्से हकीकत है या मन का भ्रम !! यह कह पाना संभव नहीं ! इन प्रचलित किस्सों में यहाँ सैनिक वर्दी में अंग्रेज सैनिक अफसर राहगीरों से सिगरेट सुलगाने के लिए लाइटर मांगने और सिर कटी अंग्रेज मानव आकृति देखे जाने की बात कही जाती है.. इस सम्बन्ध में “ आज तक “ कर्मियों ने इस स्मारक से जुड़े भूतिया रहस्यों से पर्दा उठाने की कोशिश में इस स्मारक पर रात और दिन गुजारा ! लेकिन वे भी रहस्यों की पुष्टि में तथ्य न जुटा सके ! स्मारक के गार्ड से बातचीत करने पर गार्ड ने भी इस तरह की बातों को सिरे से खारिज किया.


परकोटे पर


        परकोटे पर बैठा सुस्ता रहा था तभी कुछ याद आया ! कहा जाता है कि निजाम भिश्ती के सम्मुख, वचनबद्ध बादशाह हुमायूँ की स्थिति भी कुछ-कुछ इस उक्ति के भावानुरूप ही हो गयी थी...
वचनबद्ध हुमायूँ,और उसकी प्रजा ढाई दिन के लिए ही सही ! मगर भिश्ती की " अकल " झेलने को मजबूर थे ! क्योंकि ! भिश्ती ने संकट के समय हुमायूँ की जान बचायी थी !!

         हुमायूँ शरीर मृत्यु भय से निजात पाकर भिश्ती के सम्मुख कृतज्ञतावश किंकर्तव्यविमूढ़ था और आम जनता भिश्ती के हुकुम झेलने को मजबूर ! लेकिन शायद आज तेज रफ़्तार जिंदगी में मनुष्य को शरीर मृत्यु भय की अपेक्षा, हर पल महत्वाकांक्षाओं का मृत्यु भय अधिक सताता है !! हर महत्वाकांक्षा को फलित रूप में देखना उसके लिए जीवन- मृत्यु अनुभूति सदृश है !! इसलिए आज महत्वाकांक्षाओं को फलित करने में सहयोगी व्यक्ति के प्रति व्यक्ति की कृतज्ञतावश मजबूरी क्या कुछ नहीं कर सकती !! इतिहास के इस प्रसंग से बखूबी समझा जा सकता है, साथ ही समसामयिक विचारणीय पहलु भी है...

लाल कोट से प्रारंभ हुए दिल्ली के सफ़र का पांचवां पड़ाव : फ़िरोज़ शाह कोटला, किला, दिल्ली..


लाल कोट से प्रारंभ हुए दिल्ली के सफ़र का पांचवां पड़ाव

        फ़िरोज़ शाह कोटला, किला, दिल्ली..
     दिल्ली के सफ़र के पांचवें पडाव अर्थात पांचवी दिल्ली, फिरोजाबाद में सन 1354 के दौरान फिरोज तुगलक द्वारा तामीर करवाया गया फिरोज शाह कोटला किला अपनी निर्माण सुन्दरता के कारण लोगों में कौतुहल व आकर्षण का केंद्र हुआ करता था. दूर-दूर से देखने आने वाले लोगों की सड़कों परआवा-जाही लगी रहती थी. इसके महलों व भवनों की सुन्दरता को मानो सन 1398 में नजर लग गयी जबआक्रान्ता तैमूर लंग के कहर के बाद ये खूबसूरत किला, खंडहर, उजाड़ और वीरान होता चला गया. उस समय इस शहर की आबादी डेढ़ लाख हुआ करती थी. मुगलों ने लाल किला निर्माण के लिए निर्माण सामग्री के लिए पुराना किला का रुख किया लेकिन हुमायूँ के लिए बदनसीब साबित हुआ पुराना किला, मनहूसी के साए के चलते स्वयं को बचा सकने में कामयाब हो गया !!
        इसके बाद लाल किला निर्माण सामग्री की दृष्टि से मुगलों की नजर, तैमूर द्वारा तबाह फिरोज शाह कोटला किले पर पड़ी और इस किले की बची-खुची उपयोगी निर्माण सामग्री लाल किला निर्माण में प्रयोग में लायी गयी. आज यहाँ जगह-जगह पत्थरों के ढेर, ऊंची-ऊंची ढहती दीवारें और महल के निशान उनकी बुनियादें ही इस किले के अतीत में अस्तित्व की गवाह हैं !!
        खैर ! इस किले से जुडी रोचक प्रसंग की तरफ रुख करता हूँ.. मुग़ल काल में आम जनता का मनोरंजन भांड व नक्काल किया करते थे. विचित्र व रोचक कपडे पहनकर ये नक्काल, वाद्य यंत्रों के साथ, गली-कूचों सड़कों और चौराहों पर अपने गीतों व भाव भंगिमाओं से जनता का मनोरंजन किया करते थे. इनके गीतों में जहाँ एक ओर हंसी मजाक का पुट होता था तो वहीं किस्से-कहानियां, सच्चाई के साथ-साथ हाकिमों द्वारा लिए गए गलत फैसलों पर व्यंग्य भी होता था. इस कारण कभी-कभी हाकिम नाराज हो जाया करता था.
         एक बार मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला ने नाराज होकर सभी भांड व नक्कालों को अपनी हुकूमत शाह जहानाबाद छोड़ने का आदेश दे दिया. अब शाहजहानाबाद में कोई भांड व नक्काल न रहा !
         एक बार तुर्कमान गेट की तरफ से हाथी पर सवार बादशाह मोहम्मद शाह रंगीला जब इधर से गुजर रहा था तो उसने इन्हीं खंडहरों पर ऊंचाई पर बैठे, अपने चेलों के साथ ढोलक बजाते एक नक्काल को देखा ! बादशाह ने आश्चर्य से उससे वहां बैठे होने का कारण पूछा तो चतुर हाजिरजवाब नक्काल ने जान बख्शने की फ़रियाद करते हुए कहा “ जहाँपनाह ! आपकी हुकूमत पूरी दुनिया में है .. जहाँ भी जाते हैं आपकी हुकूमत नजर आती है ! अब भला हम जाएँ तो जाएँ कहाँ.. हार कर हमने जन्नत का रुख किया .. लेकिन अभी पहली सीढ़ी ही चढ़े थे कि सीढ़ी खत्म हो गयी ! इसलिए यहाँ बैठे हैं !!
         चतुर नक्काल का जवाब सुनकर बादशाह बहुत खुश हुआ और उसने सभी नक्कालों व भांडों को शाहजहानाबाद (पुरानी दिल्ली) में वापस लौट आने की अनुमति दे दी.


" हनूज़ दिल्ली दूरअस्त " ..." दिल्ली अभी दूर है "...

" हनूज़ दिल्ली दूरअस्त " ..." दिल्ली अभी दूर है "...

        एक बहुत ही प्रसिद्ध लोकोक्ति है, “दिल्ली अभी दूर है” अर्थात “ मंज़िल अभी दूर है ”.यदि अतीत में भ्रमण किया जाय तो इस लोकोक्ति के गर्भ में एक ऐतिहासिक प्रसंग है जो सूफी संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया से सम्बंधित है...
       1320 ईसवीं के आसपास दिल्ली में गयासुद्दीन तुगलक की सल्तनत थी. मगर दिल्ली, तुगलकों से ज्यादा सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया और उनके शागिर्द अमीर खुसरो के नाम से जानी जाती थी. अमीर खुसरो, तुगलक के दरबारी हुआ करते थे. तुगलक, खुसरो को चाहता था लेकिन औलिया की लोकप्रियता से चिढ़ता था. तुगलक सोचता था कि संत औलिया के इर्दगिर्द बैठे लोग उसके खिलाफ साजिशें रचते हैं.
       एक बार तुगलक युद्ध से दिल्ली लौट रहा था. रास्ते से ही उसने सूफी हजरत निजामुद्दीन तक संदेश भिजवा दिया कि उसकी वापसी से पहले औलिया दिल्ली छोड़ दें।
      
खुसरो को ये सब अच्छा न लगा ! वे औलिया के पास पहुंचे. तब औलिया ने उनसे कहा कि “ हनूज़ दिल्ली दूरअस्त.” अर्थात दिल्ली अभी दूर है. ग्यासुद्दीन तुगलक की पश्चिम बंगाल और उत्तरी बिहार से विजय के उपरांत दिल्ली वापसी में उसके पुत्र जुना खान ने स्वागत के लिए, कारा, उत्तरप्रदेश में. लकड़ी का एक काफी बड़ा मंच बनवाया गया था.अचानक आये भयंकर अंधड़ से उसका चंदवा (छतरी ) गिर गया. इसी के नीचे दब कर ग्यासुद्दीन तुगलक की मृत्यु हो गई. 
      इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ व मोरक्को के यात्री इब्न बबूता ग्यासुद्दीन की इस तरह हुई मृत्यु को पुत्र जूना खान के द्वारा षड्यंत्र के तहत हुई मानते हैं.
       इस प्रकार संत औलिया साहब के कहे अनुसार गयासुद्दीन तुगलक के लिए दिल्ली दूर ही रही और वो दिल्ली में जीवित वापस न आ सका !!

“ किल्ली तो ढिल्ली भई, तोमर हुए मतिहीन “ दिल्ली का इन्द्रप्रस्थ से नयी दिल्ली तक का सफ़र



“ किल्ली तो ढिल्ली भई, तोमर हुए मतिहीन “

दिल्ली का इन्द्रप्रस्थ से नयी दिल्ली तक का सफ़र

        दिल्ली की सियासत पर काबिज होने के लिए राजनीतिक दल अपना सब कुछ दाँव पर लगा देते हैं.. दिल्ली ने कभी अपने-पराये का भेद नहीं किया.जो भी यहाँ आया उसको दिल्ली ने गले लगाया ..शायद इस स्वाभाव के कारण भी दिल्ली शुरू से ही सबके आकर्षण का केंद्र रही है. चलिए आज दिल्ली नाम की विकास यात्रा पर ही चर्चा की जाय ..
       महानगर दिल्ली की विकास यात्रा की डोर, पांडवों के इंद्रप्रस्थ से प्रारंभ होकर अनेक राजाओं, सुल्तानों, सल्तनतों और बादशाहों के दौर से गुजरती हुई वर्तमान में रायसीना की पहाड़ियों, नयी दिल्ली तक पहुँचती है. इस विकास यात्रा में पहली दिल्ली का नाम लाल कोट (1000), दूसरी दिल्ली का नाम सिरी (1303), तीसरी दिल्ली का नाम तुगलकाबाद (1321), चौथी दिल्ली का नाम जहांपनाह (1327), पांचवी दिल्ली का नाम फिरोजाबाद (1354), छठीं दिल्ली का नाम पुराना क़िला (शेरशाह सूरी) और दीनपनाह (हुमायूँ;) दोनों उसी स्थान पर हैं जहाँ पौराणिक इंद्रप्रस्थ होने की बात कही जाती है (1538), सातवीं दिल्ली का नाम शाहजहांनाबाद (1639) और आठवीं दिल्ली का नाम नई दिल्ली (1911) के रूप में बदलते नामों का सफर भी जारी रहा.
       नयी दिल्ली से पहले के सात नाम आज भले ही खंडहर हो चुके इमारतों व भवनों के साथ मिट गए हैं, पर आज भी लोक-स्मृति में दिल्ली के बसने और उजड़ने की कहानी बयाँ करते हैं.
      अब इस महानगर के नाम दिल्ली होने पर चर्चा की जाय. इस सम्बन्ध में इतिहासकार एक मत नहीं हैं. तोमर वंश के शासन काल में किले में एक लोहे के खम्बे के सम्बन्ध में ज्योतिषियों की भविष्यवाणी थी कि जब तक खंबा है साम्राज्य बना रहेगा लेकिन तोमर वंश के राजा धव ने उस खम्बे के ढीला होने पर उसको बदलवा दिया और इलाके का नाम ढ़ीली रख दिया. इसके बाद तोमर साम्राज्य का पतन भी शुरू हो गया और आम जन में एक मशहूर लोकोक्ति मशहूर हुई, “ किल्ली तो ढिल्ली भई, तोमर हुए मतिहीन “ माना जाता है कि इसी लोकोक्ति से दिल्ली को उसका नाम मिला.
        ये भी माना जाता है कि तोमरवंश के दौरान जो सिक्के बनाए जाते थे उन्हें देहलीवाल कहा करते थे. इसी से दिल्ली नाम पड़ा.
         ईसा पूर्व 50 में मौर्य राजा थे जिनका नाम था धिल्लु. उन्हें दिलु भी कहा जाता था. माना जाता है कि यहीं से अपभ्रंश होकर नाम दिल्ली पड़ गया।
इस तरह तोमरों से जुड़ी लोकोक्ति मशहूर होती गई और किल्ली, ढिल्ली और दिलु अपभ्रंश होते-होते शहर का नाम दिल्ली हो गया जो कालांतर में अंग्रेजों द्वारा नई दिल्ली कर दिया गया..
         दिल्ली' या 'दिल्लिका' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उदयपुर में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया है. इस शिलालेख का समय 1170 इसवीं निर्धारित किया गया है.


Monday 31 October 2016

जयपुर की शान : सिटी पैलेस ; विश्व के सबसे बड़े चांदी के पात्र, " गंगाजली कलश "... World's Biggest Silver Urns , Gangajali Kalash, City Palace , Jaipur


जयपुर की शान : सिटी पैलेस ; विश्व के सबसे बड़े चांदी के पात्र, " गंगाजली कलश "... 

(World's Biggest Silver Urns , Gangajali Kalash, City Palace , Jaipur)

       वर्तमान में सामयिक चलन के अनुसार ही बच्चे का नाम रखा जाता है लेकिन मेरे युवा होने तक राजपूत लोग, बच्चे के नाम के साथ “ सिंह “ अवश्य लगाते थे. “ सिंह ” वीरता और पराक्रम का द्योतक है यही सोचकर संतोष कर लेता था लेकिन राजपूतों में नाम के साथ “ सिंह “ लगाने का चलन कब शुरू हुआ ! ये जिज्ञासा जरूर थी.. जानकारी के लिए बताना चाहूँगा राजपूतों में नाम के साथ “ सिंह “ जोड़ने का चलन लगभग 1721 वर्ष पूर्व शुरू हुआ. इससे पहले राजपूतों द्वारा नाम के साथ “ पाल “ आदि अन्य उपनाम लिखे जाते थे.
     राजपूतों की बात चल पड़ी है तो आइये ! चलते हैं..पराक्रमी राजपूत प्रसूता धरती, राजस्थान के गुलाबी शहर, जयपुर !. यदि आप जयपुर जाएँ और सिटी पैलेस देखने से महरूम रह जायं ! तो समझिए.. बहुत कुछ देखने से रह गया. गुलाबी शहर में सिटी पैलेस परिसर की भव्यता में खोया पर्यटक, सर्वतो भद्र चौक पर पहुंचते ही दर्शनार्थ रखे गए शुद्ध चांदी से बने दो बड़े-बड़े चमचमाते गंगाजली कलशों की सुन्दरता और विशालता पर मुग्ध होकर उनको एकटक निहारता ही रह जाता है !
      पांच फीट दो इंच ऊंचे,14 फीट 10 इंच गोलाई लिए, 4000 लीटर धारण क्षमता वाले, 340 किग्रा. वजनी शुद्ध चांदी से बने सबसे बड़े पात्र होने के कारण ये कलश गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में दर्ज हैं. 1894 में बिना जोड़ के बने इन कलशों को जयपुर राज्य के खजाने से 14000 झाड़शाही चांदी के सिक्कों को पिघलाकर बनाने में दो वर्ष लगे. जिन्हें जयपुर राज्य के 36 कारखानों में से एक मिस्त्री खाने के दो सुनार गोविंदराम और माधव ने तैयार किया था. कलशों को सरलता से सरकाने के लिए छोटे पहिए वाली प्लेट इनके आधार में लगाई गई थी.
     कलश दिखने में जितने सुन्दर हैं इनका इतिहास भी उतना ही रोचक है. वर्ष 1902 में एडवर्ड सप्तम के राजतिलक समारोह में जयपुर के महाराजा सवाई माधो सिंह को इंग्लेंड जाना था. महाराज धर्म परायण थे नित्य कर्म में गंगा जल का प्रयोग करते थे. अब इंग्लैण्ड यात्रा व प्रवास के दौरान गंगा जल नियमित किस प्रकार प्राप्त हो ! इस समस्या के निदान हेतु महाराजा ने पवित्र गंगाजली पात्र के रूप में इन कलशों का उपयोग किया था. यात्रा के लिए समूचा पानी का जहाज, “ ओलंपिया “ भाड़े पर लिया गया. लन्दन में पूरा “ मोरे लॉज “ बुक करवाया गया. यात्रा से पूर्व पूरे जहाज को गंगा जल से धोया गया. जहाज के एक कक्ष में राधा गोपाल जी को स्थापित किया गया. इस तरह पूरा अमला इंग्लैण्ड रवाना हुआ.
      लन्दन में जब महाराजा का पूरा अमला सड़कों से गुजरता तो सबसे आगे राधा गोपाल पालकी होती उसके पीछे महाराजा और फिर सेवक ! आश्चर्य से ये नजारा देख रहे अंग्रेजों की जगह-जगह भीड़ एकत्र हो जाती थी. अंग्रेजों ने इस शोभा यात्रा का मखौल उड़ाया और इसे अंध विश्वासी राजा की सनक तक कह डाला लेकिन लन्दन के मीडिया ने महाराजा को धर्मपरायण राजा कहा.
      अंग्रेजों की गुलामी के दौर में 3 जून 1902 एक ऐसा ऐतिहासिक दिन था जब लन्दन की सड़कों पर किसी देवी-देवता की इस तरह शोभा यात्रा निकाली गयी. इस दिन महाराजा सवाई माधो सिंह की अपने इष्ट के प्रति श्रद्धा पर लन्दन ही नहीं पूरा विश्व अचंभित हुआ.
      महाराजा लन्दन प्रवास के दौरान अंग्रेजों से हाथ मिलाने के बाद जयपुर से साथ में ले जाई गयी मिट्टी से हाथ मलते और गंगाजल से हाथ धोते थे. लन्दन प्रवास के दौरान महाराजा ने इन कलशों के जल से तैयार भोजन ग्रहण किया और नित्यकर्म में भी इन पात्रों में रखे पवित्र गंगा जल का ही प्रयोग किया.


एकदा.. चिलचिलाती धूप में आगरा से 43 किमी. दूर फतेहपुर सीकरी, आगरा ( Fatehpur Seekari, Agra ) में..


एकदा.. चिलचिलाती धूप में आगरा से 43 किमी. दूर फतेहपुर सीकरी में.. 


सर्व धर्म समभाव के मुगलिया निशान ..
       बादशाह अकबर द्वारा गुजरात फतह को शानदार यादगार बनाने के उद्देश्य से 1602 में 42 सीढ़ियों के ऊपर लाल बलुवा पत्थर से लगभग 54 मी. ऊंचा और 35 मी. चौड़ा बुलंद दरवाजा बनाया गया. जिस पर संगमरमर से सजावट की गई है।
      बुलंद दरवाजे के तोरण द्वार पर प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दिया गया यह उपदेश पर्सियन भाषा में उत्कीर्ण है ..
      “ यह संसार एक पुल के समान है, इस पर से गुज़रो अवश्य, लेकिन इस पर अपना घर मत बना लो। जो एक दिन की आशा रखता है वह चिरकाल तक आशा रख सकता है, जबकि यह संसार घंटे भर के लिये ही टिकता है, इसलिये अपना समय प्रार्थना में बिताओ क्योंकि उसके सिवा सब कुछ अदृश्य है."


जयपुर की सरहदों का तन्हा निगहबां.. नाहर गढ़ दुर्ग , जयपुर .... ( Nahar Garh Fort, JAIPUR )


जयपुर की सरहदों का तन्हा निगहबां.. नाहर गढ़ दुर्ग , जयपुर ....

( Nahar Garh Fort, JAIPUR )

     जयपुर , आमेर के किले के चप्पे-चप्पे से रूबरू हो जाने के बाद इस किले की सुरक्षा हेतु बनाये गए जयगढ़ दुर्ग पहुंचा. जयगढ़ दुर्ग के बियावान में अतीत के वैभव और सांस्कृतिक झलक के दीदार कर ही रहा था कि तभी अरावली पर्वत में दूर से ही तन्हाई में झीनी चादर ओढ़े बुजुर्ग नाहरगढ़ दुर्ग अपनी लम्बी-लम्बी बाहें पसारे मुझे अपने पास बुलाता महसूस हुआ.
   " आमेर के किले के बाद आमेर से कुछ ऊपर बने जयगढ़ दुर्ग से वाकिफ होते हुए पहाड़ी पर्यटन स्थल का आभास दिलाती कनक घाटी के सर्पिलाकार संकरे ऊंचे नीचे रास्ते से गुजरता हुआ तन्हाई में डूबे नाहरगढ़ दुर्ग पहुंचा.
    मीलों लम्बी सुरक्षा दीवार के रूप में बाहें फैलाये नाहरगढ़ दुर्ग की छत पर बैठकर 282 साला बुजुर्ग दुर्ग दादा के साथ बातों का दौर शुरू हुआ. स्वर्णिम अतीत को सुनाते दुर्ग दादा के तन्हा मुरझाये चेहरे पर अब चमक परिदृश्यत होने लगी थी।
     दुर्ग दादा अतीत की यादों से रूबरू करते हुए बोले ... “ जयगढ़ दुर्ग से आ रहे हो न ! वहां दुनिया की सबसे बड़ी तोप “ जय बाण “ जरूर देखी होगी ? “ मैंने सहमती में सिर हिला दिया. बात को आगे बढ़ाते हुए दुर्ग दादा ने बताया, “ ‘जय बाण’ तोप का निर्माण, मुझे तामीर करने वाले महाराजा सवाई जय सिंह ने करवाया था. महाराज कई भाषाओँ के ज्ञाता थे गणित और खगोल विज्ञान में तो उनका कोई सानी न था ! महाराजा के नाम से पहले सवाई उपाधि सुनकर जिज्ञासा बढ़ी. मैंने बात बीच में रोकते हुए प्रश्न दागा ! “ दादा.. दादा ! सुनो !! पहले ये तो बता दो ! ये “ सवाई “ क्या है ? “
    " मेरा प्रश्न सुनकर दुर्ग दादा गर्वोन्मत्त मुस्कराहट बिखेरते हुए बोले , “ महाराजा जय सिंह के पिता व आमेर के महाराजा विशन सिंह का देहांत तब हो गया था जब जय सिंह बहुत छोटे थे, 11 साल की बाल्यावस्था में ही जय सिंह को आमेर का राजा घोषित कर दिया गया. सन् 1700 में बाल्यावस्था में राजा जय सिंह का औरंगजेब के दिल्ली दरबार में जाना हुआ तो बादशाह औरंगजेब ने जय सिंह के दोनों हाथों को पकड़ लिया और कहा.. " अब क्या करोगे ?"
      महाराजा जय सिंह बचपन से ही हाजिर जवाब और कूटनीतिज्ञ थे, वे बोले, " जहाँपनाह ! हमारे यहाँ जब शादी होती है तो वर अपनी वधू का एक हाथ थामकर उसे सात जन्मों तक सुख दुःख में साथ निभाने का वचन देता है. जहाँ पनाह ! आपने तो मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए, अब मुझे किस बात की चिंता !" बालक जय सिंह की हाजिर जवाबी पर औरंगजेब हैरत में पड़ गया, और जय सिंह को एक आदमी से बढ़कर सवा आदमी होने की अर्थात “ सवाई “ मौखिक उपाधि दे दी, तब से हमारे महाराजा और उनके उत्तराधिकारियों के नाम से पहले सवाई लगाया जाने लगा. “
     बातों-बातों में सांझ घिरने लगी, दुर्ग दादा मुझे दुर्ग के पश्चिम में बने रेस्तरां, “ पड़ाव “ में ले गए, वहीँ हमने कॉफ़ी का आनंद लिया , दुर्ग दादा जयपुर शहर के महलों से मॉल तक के सफ़र को बयाँ करते जा रहे थे और मैं चुपचाप इस सफ़र का मूक श्रोता बना अतीत में खोया सुन रहा था यादों का कारवां बहुत लम्बा था ..बातों का सिल सिला चलता रहा. ... शेष बातचीत समय मिलने पर फिर कभी साझा करूँगा।


Tuesday 11 October 2016

शहीद स्मारक, नोएडा सेक्टर-29.उत्तर प्रदेश , Shaheed Smarak, Sec-29, NOIDA, U.P.



शहीद स्मारक, नोएडा सेक्टर-29.उत्तर प्रदेश , Shaheed Smarak, Sec-29, NOIDA, U.P.

       1997 में नोएडा सेक्टर-29 के आस पास के सेक्टरों में बसे लगभग पचास हजार सेवारत् व सेवानिवृत्त सैन्य कर्मियों के मन में नोएडा वासियों को शहीदों से करीब से जोड़ने के लिए शहीद स्मारक बनाने का विचार आया था लेकिन स्मारक निर्माण पर आने वाली बड़ी लागत के चलते, विचार ठन्डे बसते में समा गया.
      1999 में कारगिल युद्ध में कैप्टन विजयंत थापर की शहादत पर उनका पार्थिव शरीर नोएडा लाया गया तो लाखों निवासियों की भीड़ उनके अंतिम दर्शन
ों के लिए उमड़ आई ! शहीदों के प्रति नोएडा वासियों के लगाव को देखकर स्मारक बनाने की मुहीम ने फिर जोर पकड़ा और देखते ही देखते अनेकों हाथ सहयोग के लिए बढ़ आये.
      पार्क परिसर की दो एकड़ भूमि पर चारों तरफ हरियाली व शोभादार वृक्षों के मध्य नोएडा के 33 ज्ञात व अज्ञात अमर शहीदों की याद में बनाये गए “ शहीद स्मारक “ के रूप में एक ऊंचे ऊंचे बलुआ पत्थर की लाट है जिस पर दर्शनाभिलाषी फूल चढ़ाकर शहीदों को श्रद्घांजलि अर्पित करते हैं। लाट की परिधि में लगे शिलापट्टों पर अमर शहीदों के नाम उत्कीर्ण हैं।
     स्मारक के प्रवेश द्वार पर दो टैंक विनाशक तोप रखी गयी हैं. स्मारक में राष्ट्रीय ध्वज के साथ तीनों सेनाओं के ध्वज, राष्ट्र के प्रति सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा देते महसूस होते हैं.
      परिसर में रखे गए सतह से हवा में मार करने वाली दो मिसाइल और एक ट्रेनर जेट भी आकर्षण का केन्द्र हैं.. 13 अप्रैल 2002 को सेना के तत्कालीन प्रमुख जनरल एस. पद्मनाभन, वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल एस . कृष्णमूर्ति और नौसेना प्रमुख एडमिरल माधवेंद्र सिंह ने शहीद स्मारक का उद्घाटन किया. ये एक दुर्लभ अवसर ही था जब तीनों सेनाओं के प्रमुख सिविल संस्था द्वारा संचालित स्मारक के उद्घाटन के अवसर पर एक साथ उपस्थित हुए थे.
     अमर शहीदों की कुर्बानियों को जीवन्त करता नोएडा शहीद स्मारक, शहीदों व उनके बलिदान के प्रति नमन, वंदन व जय हिंद करने तक ही सीमित न रखकर, साहस, शौर्य, कर्तव्यनिष्ठा व मातृभूमि के प्रति समर्पण का संदेश देने में पूर्ण सक्षम है।


https://youtu.be/60_7A9k8Po4



Sunday 9 October 2016

शहीद स्मारक, नोएडा, उत्तर प्रदेश. Shaheed Smarak, Noida . U.P.


   शहीद स्मारक, नोएडा, उत्तर प्रदेश. Shaheed Smarak, Noida . U.P.

      विरासत यात्रा क्रम को आगे बढाते हुए आज इतिहास के पन्नों में धूल फांकती, दिल्ली के इतिहास को बदल कर रख देने वाली दो सौ तेरह साल पुरानी निर्णायक ऐतिहासिक घटना के उपरान्त, आज से ठीक सौ साल पहले बने, पर्यटकों से महरूम और अमीरों की मनोरंजनगाह में कैद, स्मारक पर पहुँचने की इच्छा हुई.
    सुबह-सुबह बेटी से सम्बंधित अधिकारी से अनुमति हेतु प्रार्थना पत्र लिखने को कहा. बेटी ने मेरी जिज्ञासा पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए कहा “ पापा ! उस जगह तो ऐसा कुछ नहीं सुना !! “ बहरहाल बेटी ने प्रार्थना पत्र लिख दिया. मैंने प्रार्थना पत्र के साथ एहतियातन अपने मतदाता पहचान पत्र की छाया प्रति भी संलग्न कर दी. हम दोनों भरी दुपहरी में उस स्थान पर पहुंचे तो सम्बंधित स्मारक पर जाने की अनुमति न मिल सकी !
     मैं निराश नहीं हुआ ! क्योंकि सम्बंधित स्मारक की तस्वीर के अतिरिक्त काफी कुछ जानकारी जुटा ली थी. अत; उस स्थान के सम्बन्ध में शीघ्र ही साझा करूँगा..

वापसी में सड़क पर नोएडा सैक्टर-29 में बने “ शहीद स्मारक “ का बोर्ड दिखा तो बाइक उसी दिशा में मोड़ दी. इस तरह आज का रविवार व्यर्थ होने से बच गया !!
    अनजाने में ही मेरे स्मृति पटल पर स्थान बना चुके, मातृभूमि पर कुर्बान, नोएडा के शहीदों की याद में बने शहीद स्मारक के सम्बन्ध में समय मिलने पर अवश्य साझा करूँगा.
स्मारक से लौटते हुए, स्मारक प्रवेश द्वार के बाहर लगी टैंक विनाशक तोप के साथ तस्वीर क्लिक करने का लोभ संवरण न कर सका.


Tuesday 4 October 2016

नेहरु जी की ससुराल : हक्सर की हवेली ( Haksar ki haveli ) .. चांदनी चौक, दिल्ली




नेहरु जी की ससुराल : हक्सर की हवेली .. चांदनी चौक, दिल्ली ... ..

अतीत में सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रही, ऐतिहासिक हवेली, जो चांदनी चौक की भीड़-भाड़ में कहीं गुम हो गयी !  ...

     खजांची की हवेली में दोपहर हो चुकी थी. अब अगले गंतव्य की तरफ बढ़ना उचित समझा. सीता राम बाजार पहुंचकर हक्सर की हवेली का पता पूछा लेकिन इलाके के बुजुर्ग निवासी भी इस नाम की हवेली से अनजान थे !! काफी पूछने के बाद जब हवेली का पता न लगा तो गर्मी में भीड़-भाड़ वाली तंग गलियों में भटकते-भटकते झुंझलाहट होने लगी !
     कुछ देर सुस्ताने के बाद चाय बना रहे इलाके के पुराने बासिन्दे, जिनसे मैं पहले भी पूछ चुका था, हवेली से जुड़ी जानकारी साझा कर, पुन: हवेली का पता पूछने की हिम्मत की तो सज्जन चाय गिलास में डालते हुए मुस्कराकर कहने लगे . “ ओहो ! तो आप नेहरु जी की ससुराल के बारे में पूछ रहे हैं !” उनकी सकारात्मक मुस्कराहट से गंतव्य तक पहुँचने की कुछ आस जगी ! सज्जन के बताये अनुसार मैं सीताराम बाजार में चौरासी घंटा मंदिर के पास धामाणी मार्केट में तब्दील हो चुकी “ हक्सर की हवेली ‘ तक पहुँच गया.
    1850 से 1900 के दौर में कई कश्मीरी परिवार पुरानी दिल्ली में आकर बस गए थे उनमें से हक्सर ब्राह्मण परिवार भी एक था. आज भी चांदनी चौक की “ गली कश्मीरियाँ “ में चंद कश्मीरी परिवार तब की याद दिलाते हैं.
     कभी चांदनी चौक की पहचान रही और इतिहास में “ हक्सर की हवेली “ के नाम से मशहूर यह हवेली स्थानीय निवासियों में “ नेहरु जी की ससुराल “ के नाम से जानी जाती है . लन्दन से बैरिस्टरी कर ताजा -ताजा लौटे, 26 वर्षीय जवाहर लाल नेहरु, 8 फरवरी 1916 को दूल्हे के रूप में गुलाब की महकती पंखुड़ियों की बरसात के बीच, पूरी गली में बिछे शानदार गलीचों पर नाचते गाते, चांदी की गिन्नियां लुटाते उत्साहित बारातियों के साथ, जवाहर मल कौल और राजपती कौल के धर्मनिष्ठ कश्मीरी हक्सर ब्राह्मण परिवार की 17 वर्षीय पुत्री, कमला कौल से ब्याह रचाने बारात लेकर आये थे. इस विवाह में नेहरू परिवार के सभी सगे -संबंधी मौजूद थे.
     कभी शास्त्रीय संगीत, मुशायरा और कव्वाली आदि कार्यक्रमों की मेजबानी के कारण सांस्कृतिक केंद्र के रूप में पुरानी दिल्ली की पहचान रही इस हवेली में हक्सर परिवार पुत्री के विवाह के उपरान्त कुछ ही वर्ष रहा. उसके बाद 1960 में हक्सर परिवार ने इसे रतन खंडेलवाल को बेच दिया. इसके बाद ये हवेली चांदनी चौक की व्यावसायिक गतिविधियों की भेंट चढ़ गयी. अब हवेली का मुख्य द्वार, कुछ मेहराब व स्तम्भ और पुरानी खांचों से झांकते चंद कलात्मक कोने ही हवेली के सुनहरे अतीत के गवाह है. हवेली का वैभवशाली सांस्कृतिक अतीत अब दुकानों व अव्यवस्थित नीरस भवन संरचनाओं में तब्दील होकर चांदनी चौक की भीड़ में कहीं गुम हो गया है ! इस विवाह में नेहरू परिवार के सभी सगे-संबंधी मौजूद थे।
    इस हवेली में 1983 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी इस हवेली में अपने ननिहाल का अहसास पाकर काफी भावुक हो गयी थी और इसको अपनी माँ की याद में अस्पताल में परिवर्तित करना चाहती थी लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था. कुछ समय बाद ही इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गयी !
हवेली का उपेक्षित मौन मुख्य द्वार आज भी वरुण, राहुल और प्रियंका को अपनी गोद में दुलारने की आस में टकटकी लगाये दृढ़ता से खड़ा जान पड़ता है ! 






Friday 30 September 2016

संरक्षण की गुहार लगाती “ खजांची की हवेली “ ( Khajanchi Ki Haveli ) : दरीबां, चांदनी चौक




संरक्षण की गुहार लगाती “ खजांची की हवेली “  : दरीबां, चांदनी चौक ....

       1650 में शाहजहाँ की प्रिय बेटी और वास्तुकार जहाँआरा ने लाल किले से फतेहपुरी मस्जिद के बीच 1520 गज लम्बी और 40 गज चौड़ी सड़क के दोनों ओर 1560 दुकानों वाले चांदनी चौक बाजार को मूर्त रूप दिया. बाज़ार तो समय के साथ स्वरुप बदलता गया लेकिन चांदनी चौक क्षेत्र में तत्कालीन ओहदेदारों, सेठ-साहूकारों व प्रतिष्ठित लोगों की अतिक्रमण ग्रस्त और खंडहर होती तत्कालीन हवेलियाँ आज भी उनमे उस समय बसने वाली रौनक को महसूस करा सकने में सक्षम हैं.
     लाल किले की तरफ से गुरुद्वारा शीशगंज साहिब से पहले बायें हाथ पर दरीबां की तरफ नुक्कड़ पर सौ साल पुरानी जलेबी की दुकान, ‘जलेबी वाला’ है. वहीँ से दरीबां की तरफ कुछ आगे चलने पर बाएं हाथ पर गली खजांची का बोर्ड लगा दिख जाता है इस तंग गली के मुख्य द्वार से लगभग 50 मी. दूरी पर सैकड़ों वर्ष पुरानी अतिक्रमण ग्रस्त व खंडहर हालत में “ खजांची की हवेली “ तक पहुंचा जा सकता है.
इस गली में मुगलकाल में शाही खजांची का निवास होने के कारण गली का नाम, ' गली खजांची ' हो गया.
      कहा जाता है कि खजांची की हवेली से लाल किला तक राजकोष के धन को लाने- ले जाने की सुरक्षित व्यवस्था के मद्देनजर भूमिगत सुरंग थी जिसे बाद में लाल किला की सुरक्षा व्यवस्था को देखते हुए बंद कर दिया गया. खुले आसमान के नीचे मौसम की मार सहते, खँडहर हो चुकी हवेली के बचे-खुचे मेहराबों को सँभालने की कोशिश में आज भी जुटे सफ़ेद संगमरमर के स्तम्भों पर उत्कीर्ण संगतराशी के नमूने, आज भी हवेली के अतीत के वैभव को बयाँ करते जान पड़ते हैं. ताज महल के संगमरमर के जैसे पत्थर से बने सुन्दर छज्जों की जगह ईंट-गारे से निर्मित नीरस आकृतियों ने ले ली है.
    साझा संपत्ति की उलझन में रख-रखाव को तरसती बेजार बूढी हो चुकी हवेली हर पहुँचने वाले से अपने संरक्षण की गुहार लगाती सी जान पड़ती है. दिल्ली नगर निगम द्वारा अधिसूचित 767 संरक्षित, संरचनाओं और भवनों की सूची में इस हवेली का शामिल न होना ! आश्चर्यजनक महसूस होता है !! इसके विपरीत निगम की सूची को चुनौती देती Intach की जिस सूची में निगम से अलहदा 738 संरचनाओं व भवनों को शामिल किया गया है उसमे ‘ खजांची की हवेली ‘ को शामिल किया गया है ! जो निगम के सम्बंधित विभाग की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिह्न है !!
        सैकड़ों साल के इतिहास की गवाह चांदनी चौक को विश्व विरासत शहर घोषित करने की बात तो अक्सर की जाती है लेकिन जिन विरासतों को लेकर यह बात कही जाती है वो विरासतें दिन प्रति दिन दुकानों, व्यावसायिक व अतिक्रमण गतिविधियों के कारण समाप्त होती जा रही हैं ! पूर्व शहरी विकास मंत्री श्री जगमोहन सिंह व सांसद श्री विजय गोयल द्वारा ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण केसम्बन्ध में अच्छी पहल की गयी थी लेकिन इस सम्बन्ध में केंद्र सरकार की तरफ से त्वरित व कठोर दिशा निर्देश जारी करने की आवश्यकता है. क्योंकि कहा भी गया है कि जो अपने इतिहास को भुला देते हैं वो ज्यादा समय टिक नहीं पाते.. मिट जाते हैं !!
     यहाँ बस इतना ही ! अब चलता हूँ अपने अगले गंतव्य.... हक्सर की हवेली.. की तरफ ..


Thursday 15 September 2016

सूत्रधार ....






सूत्रधार ....
               मकड़जाल की तरह गुंथी तंग गलियों में जहाँ घरों को शायद ही सूर्य की सीधी किरणें स्पर्श कर पाती हों ! ... चींटियों की तरह एक के पीछे एक चलते या यूँ कह लीजिए, रेंगते रिक्शे, दुपहिया वाहनों व चलते- फिरते लोगों की भीड़ से बचते-बचाते.. हवेलियों, कटरों, कूचों, छत्तों की बसागत वाली पुरानी दिल्ली (चांदनी चौक) में लक्षित स्थान तक पहुँच पाना, इलाके से अनभिज्ञ व्यक्ति के लिए अगर असंभव नहीं ! तो आसान भी नहीं है !!
              एकाधिक अवसरों पर व्यक्तिगत अनुभव हुआ कि इतिहास में स्थान जिस नाम से विख्यात होता है, वह स्थान या स्मारक, स्थानीय निवासियों में किसी दूसरे ही स्थानीय नाम से प्रचलित होता है !! इस स्थिति में सम्बंधित क्षेत्र में पहुँचने पर भी इच्छित जगह न मिल पाने के कारण मन में हताशा और निराशा घर करने लगती है. इस कारण थक हारकर बैरंग ही लौट चलने का जी करने लगता है.
            अक्सर महसूस किया है कि हताशा की इस स्थिति में यदि सब्र, नम्रता व व्यवहार कुशलता को माध्यम बनाया जाए तो अंत में कोई न कोई स्थानीय उम्र दराज निवासी आपको मंजिल तक पहुंचाने में मददगार साबित हो सकता है. इस प्रकार लक्षित स्थान मिलने पर जो खुशी मिलती है उसको शब्दों में बयाँ करना कठिन है। बस यूँ मान लीजिए ऐसा अनुभव होता है कि मानों संजीवनी बूटी मिल गई !
            भुलक्कड़ प्रवृत्ति का होने के कारण मुझे अक्सर इस तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है !चांदनी चौक क्षेत्र में इस बार स्थानीय निवासी श्री प्रवीण कुमार जी, स्थानीय अबूझ जानकारियों के सूत्रधार बने.. धन्यवाद श्री प्रवीण कुमार जी ..



Monday 12 September 2016

बकरीद ( Bakreed )



राह चलते बस यूँ ही....

         गंतव्य की तरफ बढ़ रहा था तभी जामा मस्जिद से लाल किले की तरफ जाने वाली सड़क के दोनों तरफ खूब चहल-पहल दिखाई दी. बकरों की खरीद-फरोख्त का बाजार लगा था. कौतूहल जगा ! बाइक एक तरफ खड़ी करके माहौल का आनंद लेने लगा. राजधानी में बकरीद के मुकद्दस मौके के करीब आते ही अन्य बाजारों में भी रौनक बढ़ गई है.
       सुना है कि पुरानी दिल्ली के कबूतर बाजार में छोटे अली ने अपने बकरे की कीमत 64 लाख रुपये लगा रखी है. बकरे की खासियत यह है कि इसके शरीर में 'अल्ला हू' और '786' का निशान प्राकृतिक रूप से बना हुआ है.
     पिछले साल बकरीद (Bakreed ) से पहले राजस्थान में एक बकरे को खरीदने के लिए 48 लाख रुपए तक की बोली लग चुकी थी लेकिन बकरे के मालिक गोविंद चौधरी इसे 61 लाख रुपए से कम में नहीं बेचना चाहते थे. बकरे की देखभाल का तरीका आलीशान था. बकरे को बाकायदा कार से लाया ले जाया जाता था. और खाने में सिर्फ मेवे ही दिए जाते थे !
     कुर्बानी की सटीक और सारगर्भित व्याख्या तो मजहब के जानकार ही कर सकते हैं. मैं तो बस इतना जानता हूँ कि बेशक मजहब कोई भी हो लेकिन मजहबी परम्पराओं में प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से मानव कल्याणार्थ सार्थक सन्देश अवश्य होता है ! परम्परा को हम किस रूप में, किस तरह निभाते व अपनाते हैं ये व्यक्तिगत विषय हो सकता है लेकिन परम्परा में निहित सन्देश को देश-काल-परिस्थितियों के अनुरूप आध्यात्मिक, वैज्ञानिक व तथ्यपरक दृष्टिकोण अपनाते हुए सकारात्मक रूप से अपनाने की सम्यक आवश्यकता है ..
       बकरों के इस बाजार में क्रेता और विक्रेता दोनों में खरीद-फरोख्त को लेकर खूब उत्साह था...मेरे लिए यही एक कौतुहल का विषय था लेकिन मुझे अपने इच्छित गंतव्य पर भी पहुंचना था ... अधिक विलंब न करते हुए बढ़ चला अपने गंतव्य की ओर..


Sunday 11 September 2016

गली खजांची है ... Gali Khajanchi





गली खजांची है ! मगर खजांची है न खजाना !!
अब यादों का मंजर हुआ एक खंडहर वीराना !!


Friday 9 September 2016

झरना ( A Waterfall )




झरना

चलना नित
आगे बढ़ना
झर-झर
झरना कहता है
चलते जाना
जीवन है
रुक जाना
मौत समान है.

गति ही
चिर यौवन उसका
यौवन कब __
पीछे देखता है !!
गिरी शिखरों की
गोद से निकल
अब__
पत्थरों से भी टकराना है.
... विजय जयाड़ा

ऐतिहासिक पांडव कालीन श्री योगमाया मंदिर, मेहरौली, दिल्ली .. ( Yogmaya Mandir, Mehroli , Delhi, INDIA )



ऐतिहासिक पांडव कालीन श्री योगमाया मंदिर, मेहरौली, दिल्ली .. ( Yogmaya Mandir, Mehroli , Delhi, INDIA )

      मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं ! प्रथम मानव तत्पश्चात धर्म !!
       इस मन्दिर में आज भी गंगा जमुनी साझा तहजीब बसती है. गौर कीजियेगा तस्वीर में दिख रहे पंखों में साझा तहजीब देखी जा सकती है ..
        बेशक ये तस्वीर गुणवत्ता के मानदंडों पर खरी न उतरे लेकिन बहुत कुछ बोलती है !!


 

' घंटेवाला ' (Ghante Wala ) मिठाई की दुकान : चांदनी चौक दिल्ली ...




' घंटेवाला ' मिठाई की दुकान : चांदनी चौक दिल्ली ...

       जब भी चांदनी चौक जाता था तो “ घंटेवाला “ मिठाई की दुकान पर कुछ हल्का-फुल्का अवश्य खा लेता था लेकिन अबकी बार गया तो... दुकान ही न मिली ! अब वहां शो रूम मिला.
      इन्द्रप्रस्थ-लालकोट से शुरू हुआ दिल्ली का लगभग पांच हजार वर्षों का सफ़र, रायसीना की पहाड़ियों पर जा रुका लेकिन दिल्ली का मिजाज रोज बदल रहा है. कड़ी प्रतिस्पर्धा और निरंतर तकनीकी तरक्की के दौर में आम आदमी का खान-पान भी बदल रहा है. इस कारण आखिरकार 225 साल पुरानी देश-विदेश में प्रसिद्ध “ घंटे वाला “ मिठाई की दुकान 2 जुलाई 2015 को इस बदलाव की भेंट चढ़ गयी और चांदनी चौक की विशिष्ट पहचान, जो इतिहास के कई उतार चढाव की गवाह थी , हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गयी !
     जब वर्ष 1790 में लाला सुखलाल जैन आमेर से दिल्ली आए, तो उन्होंने ठेले पर मिश्री-मावा बेचना शुरू किया, उस समय उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन चांदनी चौक जैसे मशहूर बाज़ार में न सिर्फ उनकी दुकान होगी, बल्कि ' 225 साल पुरानी दुकान ' के रूप में प्रसिद्धि भी हासिल करेगी. यही नहीं, 'घंटेवाला' ने देश के कई प्रधानमंत्रियों से लेकर कई मुगल बादशाहों और विदेशी प्रतिनिधियों तक की सेवा की है, इसके देसी घी और क्रीम से बने सोहन हलवे और कराची हलवे के सभी दीवाने थे.
       'घंटेवाला' नाम के पीछे भी एक कहानी है। पुराने वक्त में यह 'घंटेवाला' एक स्कूल के सामने ठेला लगाकर खड़ा हुआ करता था, जिसके घंटे की आवाज़ लालकिले तक सुनाई पड़ती थी। जब भी 'घंटेवाला' का घंटा बादशाह को सुनाई पड़ता, तत्कालीन मुग़ल बादशाह बादशाह शाह आलम अपने नौकर से 'घंटे के नीचे वाले हलवाई' से मिठाई लाने के लिए कहते थे. ये क्रम अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र तक चला.
       अब तो यह दुकान बंद हो ही चुकी है, लेकिन इसके मिष्ठान्नों और पकवानों के अनूठे स्वाद को लोग शायद कभी नहीं भूल पाएंगे.
      देश में इस तरह न जाने कितने स्वस्थ भारतीय पारंपरिक पुश्तैनी व्यवसाय, ' तरक्की ' की दौड़ में आर्थिक तंगी के कारण पिछडकर, रोज बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भेंट चढ़ रहे हैं ! घरेलू व पारंपरिक लघु उद्योगों को सस्ती तकनीकी सहायता उपलब्ध करा कर बचाना आवश्यक है, क्योंकि इन उद्यमों पर देश की बहुत बड़ी आबादी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से निर्भर है.. कुछ इसी उधेड़बुन में अगले गंतव्य की ओर बढ़ गया !!

Thursday 8 September 2016

सबसे पुराना, ऊँचा और मोटा, देवदार वृक्ष (Oldest, Longest and Thick Trunked Devdar Tree)




सबसे पुराना, ऊँचा और मोटा, देवदार वृक्ष (Oldest, Longest and Thick Trunked Devdar Tree)    

चंद वर्षों के जीवन में ही दूसरों का सब कुछ लूटने की हवस रखने वाले मानव का दंभ तोड़ता भारत का ये सबसे पुराना, ऊँचा और मोटा, (Oldest, Longest and Thick Trunked Devdar Tree)    (6.35 मीटर)  देवदार वृक्ष अनुमानतः 1000 सालों से किसी से कुछ न लेकर और अपनी सेवा का ढ़ोल पीटे बिना, मौन, सभी को नि:स्वार्थ व नि:शुल्क प्राण वायु प्रदान कर रहा है.
     देहरादून, चकराता तहसील से लगभग 30 किमी. दूर,  समुद्र तल से लगभग 7000 फीट की ऊंचाई पर, कनासर के सघन देवदार वन क्षेत्र में, स्वयं में लम्बा इतिहास समेटे इस चिर यौवन लिए, मुस्कराते योगी को देखना कौतुहल उत्पन्न करता है ! इस वृक्ष के सानिध्य में सभ्यता व संस्कृति के न जाने कितने काफिले गुजरे होंगे ! न जाने कितने मानव वंशजों के उत्थान-पतन इस वृक्ष ने देखे होंगे .. अनुभव किये होंगे .. सुने होंगे !!


Monday 29 August 2016

कुतुब मीनार दिल्ली .. ( KUTUB MINAR, DELHI)



          मेरे छुटकु कैमरे की नजर से  ... पत्थर और गारे से निर्मित, विश्व की सबसे ऊंची (72.5 मी.) मीनार, विश्व धरोहर कुतुब मीनार ( KUTUB MINAR)
          1963 में देवानन्द साहब ने इस मीनार में अपनी फिल्म " तेरे घर के सामने " के गीत .... दिल का भंवरा करे पुकार .. की शूटिंग करना तय किया था लेकिन उस समय के बड़े साइज के कैमरे मीनार में व्यवस्थित न हो सके ! फलस्वरूप देवानन्द साहब को कुतुब मीनार के मॅाडल में गाने का फिल्मांकन करके ही संतोष करना पड़ा।
          1981 में मीनार के अन्दर अचानक लाइट चली जाने से मीनार की 379 सीढ़ियों में मची भगदड़ से कई स्कूली छात्रों की मृत्यु के बाद आम जनता के लिए कुतुब मीनार के अन्दर प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया।
           कुतुब मीनार के साथ, अलाई दरवाजा और इमाम ज़ामीन का मकबरा है।




Sunday 21 August 2016

अंधे के हाथ बटेर !!



अंधे के हाथ बटेर !!

         विकास नगर, देहरादून  से कुछ दूरी पर लेकिन बैराठ खाई से पहले चालक ने भोजन के लिए जीप रोकी. इस छोटे से स्थान पर कुछ दुकानें थी. मैंने हल्का नाश्ता किया और कुछ तस्वीरें लेने लगा. अचानक उमड़ते-घुमड़ते बादलों का दृश्य मनोरम लगा लेकिन चश्मा जीप में ही छूट गया था और मेरे छुटकू कैमरे का ज़ूम भी ख़राब हो गया था.! इस कारण दृश्य कैमरे के स्क्रीन पर स्पष्ट नहीं दिख पा रहा था ! अंदाज से ही क्लिक कर लिया !! . इस तरह लग गया “ अंधे के हाथ बटेर !! “

Saturday 20 August 2016

विकास नगर, देहरादून ( Vikas Nagar, Dehradun )



चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला
     तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला ....

Friday 19 August 2016

जंगलात चौकी, चकराता, देहरादून .. Forest Post, Chakrata, Dehradun




जंगलात चौकी, चकराता, देहरादून .. Forest Post, Chakrata, Dehradun

         "पहाड़ : संस्कृति, साहित्य और लोग" पर केन्द्रित, "पलायन एक चिंतन' दल द्वारा दिनांक 14 व 15 अगस्त 2016, दूरस्थ व दुर्गम क्षेत्र, ग्राम-कनासर, चकराता, जौनसार-बावर में आयोजित विचार गोष्ठी में विद्वानों के सानिध्य में विचार मंथन का सौभाग्य प्राप्त हुआ.कनासर की तरफ बढ़ते हुए देहरादून से         लगभग 96 किमी. दूर दुर्गम मगर प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर स्थान, “ जंगलात चुंगी, “ पर रुके. ये स्थान किसी समय जौनसार की प्रसिद्ध आलू मंडी हुआ करती थी. यतायात व साधन सुविधा बढ़ने से स्थानीय निवासी अब स्वयं मनचाही जगह अपना आलू विक्रय करने लगे हैं. आज भी तत्कालीन आलू थोक व्यापारी अरुण कुमार जैन, सुधीर कुमार जैन, महावीर प्रसाद व टेकचंद के ताला बंद गोदाम, एक समय इस स्थान पर ढुलान-लदान और मोल-भाव में व्यस्त लोगों की चहल-पहल से गुलज़ार, बाज़ार की कहानी बयाँ करते हैं. आज ये स्थान सुनसान सा महसूस होता है.
          बारिश के साथ ठण्ड भी थी अत: यहीं बैठकर, मेरे सबसे दायें “ पलायन एक चिंतन “ दल के पुरोधा श्री रतन सिंह असवाल जी, साहित्यिक चिन्तक श्री जागेश्वर जोशी जी व मेरे बाएं गोष्ठी की गतिविधियों को करीब से सदा के लिए अपने कैमरे के माध्यम से दक्षता से सहेजने का दायित्व सँभालने की जिम्मेदारी लिए ऊर्जावान कार्यकर्ता श्री विनय जी के साथ कुछ देर रूककर चाय का आनंद लिया।


यादगार लम्हे ... Memorable Movements with Uttarakhand Gaurav Sh Narendra Singh Negi




यादगार लम्हे ...  Memorable Movements with Uttarakhand Gaurav Sh Narendra Singh Negi 

     राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिलब्ध, सरल व्यक्तित्व के धनी, गढ़रत्न, आदरणीय श्री नरेन्द्र सिंह नेगी जी, अपने व्यक्तित्व व कृतित्व से उत्तराखंड की पहचान हैं। आपके सुर - संगीत के माधुर्य में उत्तराखंड का इतिहास व संस्कृति जीवन्त रमती है ! प्रवाहमयी होती है !!
      " प्लायन एक चिंतन " दल द्वारा सुदूर, प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर, सघन देवदार वन के मध्य, जौनसार-बावर, जनजातीय क्षेत्र, ग्राम-कनासर में, " साहित्य - संस्कृति और लोग " पर केंद्रित विचार गोष्ठी में आपके सानिध्य सुख का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
      ये यादगार तस्वीर सेलेब्रिटी के साथ मात्र साझा तस्वीर सुख ही नहीं ! बल्कि सोचता हूँ ऐसी विभूतियों के ओज क्षेत्र में रहना भी अप्रत्यक्ष रूप में बहुत कुछ दे जाता है।


ग्राम-लोहारी ( Lohari ), लोखंड (Lokhand) , चकराता , देहरादून






ग्राम-लोहारी ( Lohari ),लोखंड (Lokhand), चकराता , देहरादून 

            उत्तराखंड में प्राकृतिक सुन्दरता सर्वत्र बिखरी पड़ी है। इन खूबसूरत स्थानों से अनभिज्ञ होने के कारण पर्यटक अंग्रेजों के समय से लोकप्रिय कुछ चुनिन्दा स्थानों का ही रुख करते हैं ! उत्तराखंड के विभिन्न खूबसूरत स्थानों को पर्यटन मानचित्र पर उचित स्थान दिलाने व पर्यटकों के मध्य लोकप्रिय करने हेतु पर्यटन विभाग द्वारा उचित प्रयास किया जाना आवश्यक है। इस प्रकार स्थानीय रोजगार को बढ़ावा मिलने के साथ-साथ राज्य के पर्यटन राजस्व में भी बढ़ोतरी हो सकती है।
          जूम विकल्प खराब हो जाने के बाद भी मेरे छुटकु कैमरे की नज़र में चकराता से लगभग 15 किमी. की दूरी पर स्थित, जौनसार-बावर क्षेत्र में हिमालय की मनोरम पहाड़ियों की गोद में आबाद काष्ठ निर्मित घरों के एक खूबसूरत, ग्राम-लोहारी का विहंगम नजारा ... संघनित वाष्प से निर्मित, तेजी से ऊपर उठते बादलों के कारण ये नजारा और भी दिलकश हो जाता।



Thursday 18 August 2016

सर... चकराता !! ....चकराता, देहरादून, उत्तराखंड ( Chakrata, Dehradun, Uttarakhand )




सर... चकराता !!... चकराता, देहरादून, उत्तराखंड 

      स्थानीय बस सेवा द्वारा देहरादून से विकासनगर और फिर विकासनगर से जीप द्वारा बादलों के फाहों में लिपटे, अपेक्षाकृत छोटे व खूबसूरत शहर, चकराता, पहुंचा. जीप की सभी सवारियां उतरकर चालक को किराया देने लगी तो मैंने भी किराया राशि चालक की तरफ बढ़ाई लेकिन चालक नहीं ली और कहा " आप इस क्षेत्र में नए हैं, पहले आपको कनासर जाने वाली किसी उचित गाड़ी में बिठा लूँ फिर आपसे किराया ले लूँगा " इस तरह सरल व सहज आत्मीय व्यवहार से स्थानीय चालक ने मेरा दिल जीत लिया. चकराता में, 27 किमी. दूर कनासर पहुँचने के लिए वाहन की प्रतीक्षा करने के साथ-साथ आदतन छायांकन और स्थानीय जानकारियाँ भी जुटाने लगा.
      समुद्र तल से लगभग 7000 फीट ऊँचाई पर स्थित इस खूबसूरत स्थान के नामकरण के सम्बन्ध में एक रोचक वाकया प्रचलित है। कहा जाता है कि गर्मी से तंग आकर ब्रिटिश सेना के कर्नल ह्यूम जब देहरादून से लगभग 95 किमी. की दूरी पर शहर की भीड़-भाड़ से दूर, मनोरम पहाडियों और घने जंगलों से घिरे, इस अल्प ज्ञात स्थान पर पहुंचे तो जिज्ञासावश उन्होंने पेड़ की छाँव में बैठे अस्वस्थ स्थानीय निवासी से इस स्थान का नाम पूछा. स्थानीय निवासी अंग्रेज की बात ठीक से न समझ सका ! उसने सोचा ! शायद अंग्रेज उसका हाल पूछ रहा है तो उसने अंग्रेज से उसके ही लहजे में उत्तर दिया, “ सर .. चकराता “
      कर्नल ह्यूम को यह प्रदूषण मुक्त स्थान इतना पसंद आया कि वे यहीं के होकर रह गए और उन्होंने इस स्थान को ..” चकराता “ नाम दे दिया. इसके बाद ब्रिटिश आर्मी द्वारा इस स्थान का उपयोग समर आर्मी बेस के रूप में किया जाने लगा.
      हालांकि प्राकृतिक सुन्दरता से परिपूर्ण चकराता, सैन्य छावनी क्षेत्र होने के कारण पर्यटन मानचित्र पर उचित स्थान नहीं बना पाया है लेकिन ऊंचे-ऊंचे सघन शंकुवाकार देवदार वृक्षों की पहाड़ियों से घिरा ये क्षेत्र प्राकृतिक सौंदर्य में किसी भी स्तर पर मसूरी से कम नहीं है.
      यहाँ साहसिक पर्यटन के शौक़ीन सैलानियों के लिए स्थानीय निवासियों द्वारा आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध हैं. एशिया का सबसे लम्बा और गोलाई वाला देवदार वृक्ष भी इसी क्षेत्र में है. सर्दियों में बर्फ़बारी से सफ़ेद चादर में लिपट जाने के बाद इस क्षेत्र का सौन्दर्य देखते ही बनता है.
      शांति प्रिय पर्यटकों में लोकप्रिय, चकराता से 5 किमी. दूर 50 मी. ऊंचा झरना, टाइगर फॉल है. प्रकृति को करीब से देखने ले लिए 26 किमी. की दूरी पर स्थित, “ कनासर ‘ की शांति भी बहुत कुछ बयां करती है. चकराता से महाभारत काल से जुड़े लाखमंडल, मोईगड झरना, रामताल गार्डन, बुधेर गुफा और 16 किमी. दूर समुद्र तल से 9500 फीट की ऊँचाई पर स्थित ‘ देववन ' से हिमालय की विशाल पर्वत श्रंखलाओं को निहारने का आनंद लिया जा सकता है
      चकराता पहुँचते हुए महाभारत व मौर्य काल से जुड़े कालसी में सम्राट अशोक के शिलालेख व पुरावशेषों का अवलोकन भी किया जा सकता है
      चकराता प्रवास के लिए मार्च से जून और अक्टूबर से दिसम्बर उपयुक्त समय है। जून के अंत और सितम्बर के मध्य में यहाँ वर्षा होती है। अधिक ऊँचाई पर होने से यहाँ पर बर्फ़बारी के कारण सर्दियों में काफ़ी ठण्डी होती है। वन विभाग की साइट द्वारा गेस्ट हाउस बुक किया जा सकता है ठहरने के होटल कम होने के कारण यहाँ यहाँ रहने पर अधिक व्यय संभव है यदि आप एक दो लोग हैं तो स्थानीय निवासी आपको घरों पर कम दाम पर आवासीय सुविधा उपलब्ध करवा सकते हैं.
      कुछ देर रुकने पर " पलायन एक चिंतन " दल के अन्य सदस्य भी अपने-अपने निजी वाहनों से चकराता पहुँच गए.. दल के संयोजक श्री रतन सिंह असवाल जी ने मुझे देख लिया. मेरी वाहन व्यवस्था हो चुकी थी अतः जीप चालक ने मुझसे किराया ले लिया. ठण्ड का आभास हो रहा था ! असवाल जी, श्री जागेश्वर जोशी जी व श्री विनय जी के साथ चाय पीकर हम एक ही गाड़ी से अपने अंतिम पड़ाव, कनासर, की ओर चल दिए।


Wednesday 17 August 2016

घंटा घर, देहरादून . ( Clock Tower of Dehradun ).उत्तराखंड



घंटा घर, देहरादून .. ( Clock Tower of Dehradun )

उन्होंने चौराहों पर
समय को खड़ा किया
हमने चौराहों पर
बुत बना दिए,
बुत से हुई हमें
मुहब्बत इस कदर !
उनको भी फिरकों में
बांटने के मंसूबे बना दिए !!
.. विजय जयाड़ा 

              स्वतंत्रता से पूर्व निर्मित, देहरादून  के  राजपुर रोड स्थित, घंटाघर से शायद अधिकतर लोग वाकिफ होंगे. निर्माण की दृष्टि से यह पूरे एशिया में अलग ही प्रकार का निर्माण है षष्ठ फलकीय यह आकृति देहरादून की सुंदरता का मुख्य बिंदु है साथ ही किसी भी पते-ठिकाने की जानकारी हेतु इसे केन्द्र माना जाता है. 
   पहले इस घंटाघर के माध्यम से बहुत दूर से ही समय देख लिया जाता था और इसकी घंटियों की आवाज़ बहुत दूर तक सुनाई पड़ती थी लेकिन शायद बदलते परिवेश में इसका महत्व समय पता करने की दृष्टि से कम होता चला गया. तभी तो कुछ सालों से इसकी सुइयों की गति ठहर गयी है और सन्नाटे को चीरती ,घंटियों की आवाज़ सुनने को कान तरस गए है.
  

Thursday 4 August 2016

आस्था, श्रद्धा व विश्वास के प्रतीक : श्री कंडार देवता मंदिर ( Kandar Devta Temple ), कलेक्ट्रेट, उत्तरकाशी ( Uttarkashi ),उत्तराखंड




आस्था, श्रद्धा व विश्वास के प्रतीक : श्री कंडार देवता मंदिर ( Kandar Devta Temple ), कलेक्ट्रेट, उत्तरकाशी ( Uttarkashi ),उत्तराखंड 

          1985 से 92 तक उत्तरकाशी में निवास किया उसके बाद कई बार उत्तरकाशी जाना हुआ लेकिन कलक्ट्रेट उत्तरकाशी के मुख्य द्वार पर स्थापित श्री कंडार देवता मंदिर के पास से कई बार गुजरने के बावजूद भी दर्शन का सौभाग्य न मिल सका ! लेकिन अबकी बार शायद श्री कंडार देवता को मंजूर था. दो बजे उत्तरकाशी पहुंचे तो भूख लगने लगी . सोचा !! भोजन से पूर्व, श्री कंडार देवता  के दर्शन कर लिए जाएँ ! मंदिर के पास ही भंडारी होटल में बैग रखा और मंदिर में पहुँच गए.
        श्री कंडार देवता से जुडी कथा के अनुसार राजशाही के समय यही कलक्ट्रेट के पास खेत पर हल लगाते हुए एक किसान को अष्टधातु से बनी अद्भुत प्रतिमा प्राप्त हुई. राज्य की संपत्ति मानकर किसान ने प्रतिमा को राजा को सौंप दिया तत्पश्चात राजा ने इस प्रतिमा को अपने देवालय में रखी अन्य मूर्तियों के नीचे स्थान दिया. सुबह जब राजा देवालय में पूजा करने पहुंचे तो उन्होंने इस प्रतिमा को अन्य मूर्तियों की अपेक्षा सबसे ऊपर पाया. इसके बाद राजा ने इस प्रतिमा को परशुराम मंदिर में पहुंचा दिया. परशुराम मंदिर के पुजारी ने प्रतिमा की विलक्षणता को समझते हुए इसे नगर से दूर वरुणावत पर्वत पर स्थापित करने का सुझाव दिया.
       भूत, वर्तमान और भविष्य बताने वाले श्री कंडार देवता को संग्राली,  पाटा, खांड, गंगोरी, लक्ष्केश्वर, बाडाहाट (उत्तरकाशी), बसुंगा गांवों का रक्षक देवता माना जाता है. वरुणावत पर्वत पर संग्राली गाँव में मूल रूप से स्थापित श्री कंडार देवता के दिव्य स्वरुप के कारण आज भी वहां सदियों से चली आ रही परम्पराएँ जीवित हैं.
        संग्राली गाँव में पंडित की पोथी डॉक्टर की दवा, कोतवाल का आदेश काम नहीं आता ! यहाँ केवल कंडार देवता का आदेश ही सर्वमान्य है. ये मंदिर श्रृद्धा व आस्था का केंद्र ही नहीं बल्कि ऐसा न्यायालय भी है जहाँ जज, वकीलों की बहस नहीं सुनता बल्कि देवता की डोली स्वयं ही फैसला सुनाती है.
पंचायत प्रांगण में तय ग्रामीण डोली (तस्वीर में दृष्टव्य)  को कंधे पर रख कर देवता का स्मरण करते हैं और डोली डोलते हुए नुकीले अग्रभाग से जमीन में कुछ रेखाएं खींचती है इन रेखाओं के आधार पर ही फैसले, शुभ मुहूर्त आदि तय किये जाते हैं. इन रेखाओं के आधार पर जन्म कुंडली भी बनायीं जाती है.
स्थानीय निवासियों में शिव का स्वरुप माने जाने वाले कंडार देवता के प्रति इतनी अधिक श्रद्धा है कि पंडितों द्वारा जन्म कुंडली मिलान करने पर विवाह के लिए मना किये जाने पर वे विवाह देवता की आज्ञा पर तय कर जाते हैं. गाँव में बीमार होने पर पीड़ित को देवता के पास लाया जाता है, सिरदर्द, बुखार दांत दर्द आदि समस्याएँ ऐसे गायब हो जाती हैं जैसे पहले थी ही नहीं.
       श्री कंडार देवता के मूल मंदिर का स्थान संग्राली गाँव, उत्तरकाशी शहर से कुछ दूर और चढ़ाई वाले मार्ग पर है. जिले के जिलाधिकारी कार्यालय के मुख्य द्वार पर  श्री कंडार देवता का मंदिर सन 2002 में बनाये जाने के बाद अब  कंडार देवता
(Kandar Devta Temple) शहर के मुख्य स्थान पर विराजमान हैं जिससे जिले के हर क्षेत्र के आगंतुक श्रद्धालु दर्शन लाभ प्राप्त कर रहे हैं.    
       दर्शन उपरान्त मन्दिर के पुजारी जी से जानकारी लेने के उपरान्त कुछ तस्वीरें क्लिक की और होटल में भोजन करने के बाद हम अगले गंतव्य की ओर चल दिए.




Saturday 16 July 2016

हो उजास जीवन निरंतर



हो उजास जीवन निरंतर
तन भी व्याधि मुक्त हो
मरु अगर हो जाए धरा तो
      आप उपवन मध्य हो ... 2
खार मुक्त हो पथ स्वयं
ठोकर न लगने पाए कहीं
शतायु हो जीवन सफल
       कामना मेरे मन की यही ... 2

दिवस उत्सव पूर्ण हो नित
सकल मनोरथ सिद्ध हो
अंगना बरसे खुशियाँ निस दिन
         घर धन – धान्य पूर्ण हो .... 2


.. विजय जयाड़ा 15.07.2016

आज, बीज को वट वृक्ष का रूप दे सकने का हुनर रखने वाली, कुशल मार्गदर्शी व प्रेरक व्यक्तित्व, हमारे विद्यालय की प्रधानाचार्या, श्रीमती कमलेश कुमारी जी का सेवाकाल के अंतर्गत विद्यालय परिवार के मध्य मनाया जाना वाला अंतिम जन्म दिवस था.
आदरणीया श्रीमती कमलेश जी के बारे में संक्षिप्त में इतना ही कहूँगा कि मेरे व्यक्तिव में बहुत कमियाँ है लेकिन अगर आपको कुछ अच्छा जान पड़ता है तो उसका काफी कुछ श्रेय मैं नि:संकोच आदरणीया श्रीमती कमलेश जी को देना चाहूँगा.
ऐसे प्रेरक व विद्वान् व्यक्तित्व को भला व्यक्तिगत रूप से मैं उपहार में क्या दे सकता था.! मैनें मनोद्गारों को त्वरित चंद पंक्तियों में पिरोकर भेंट करना ही उचित समझा ..


नारी ( A Women )


नारी

कभी पहाड़
कभी !
मोम हो जाती है
दुहती है पहाड़
उनको
संवारती भी है
जूझती है स्वयं से
जिंदगी भर !
मगर हर पल
वात्सल्य बरसाती है
डरते हैं
कुछ लोग
पहाड़ों को देखकर
उसको परवाह नहीं !
मगर___
झुक जाते हैं
पहाड़ भी !
नारी के
ममतामयी दृढ़
स्वरूप को देखकर !! 

..विजय जयाड़ा


Wednesday 13 July 2016

श्री काशी विश्वनाथ मंदिर, उत्तरकाशी ..Uttarakhand ( Shri Kashi Vishwanaath Temple, Uttarkashi, Uttarakhand )




       श्री काशी विश्वनाथ मंदिर, उत्तरकाशी, Uttarakhand  ( Shri Kashi Vishwanaath Temple, Uttarkashi, Uttarakhand )

      ऋषिकेश ( Rishikesh ) से 170 किमी. की दूरी पर भागीरथी ( Bhagirathi ) नदी के तट पर बसे उत्तरकाशी शहर पहुंचकर बस अड्डे से 200-300 मी. की दूरी पर भोले बाबा को समर्पित विश्वनाथ मंदिर नाम से प्रसिद्ध, शंकराचार्य कालीन वास्तु में निर्मित प्राचीन शिव मंदिर में पहुंचा तो यहाँ से जुडी यादों का कारवां जैसे मेरे इंतज़ार में ही था !!
       कॉलेज के दिनों में पूरा साल हॉकी और क्रिकेट खेलने में व्यतीत कब हो जाता था ! पता ही नहीं लगता था !!. जब परीक्षाओं की डेट शीट मिलती थी तब हर साल परीक्षाओं के रूप में आने वाली इस चिर परिचित मुसीबत में भोले बाबा ही एकमात्र तारणहार जान पड़ते थे !! सबसे पहले साथियों के साथ मंदिर पहुंचकर भोले के दर्शन कर आत्मविश्वास बटोरने का मंगल कार्य किया जाता था. कुछ साथी मंदिर की दीवारों पर अपना रोल नंबर लिखकर भोले बाबा को परीक्षा तारण करवाने की जिम्मेदारी याद दिलाने में किसी तरह की कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते थे !!
       ये तय बात थी कि भोले के सानिध्य में मुझे सकारात्मकता ऊर्जा प्राप्त होती थी फलस्वरूप भरपूर आत्म विश्वास के साथ परीक्षा की तैयारियों में परीक्षा समाप्त होने तक मैं प्रति दिन 18 - 19 घंटे लगातार अध्ययन में जुटा रहता था.
      उत्तरकाशी ( Uttarkashi)  शहर जनपद का मुख्यालय है. केदारखंड ( Kedar khand ) और पुराणों में उत्तरकाशी के लिए 'बाडाहाट' शब्द का प्रयोग किया गया है। केदारखंड में ही बाडाहाट में विश्वनाथ मंदिर का उल्लेख मिलता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार उत्तरकाशी में ही राजा भागीरथ ने तपस्या की थी और उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि भगवान शिव धरती पर आ रही गंगा को धारण कर लेंगे. तब से यह नगरी विश्वनाथ की नगरी कही जाने लगी और कालांतर में इसे उत्तरकाशी कहा जाने लगा. केदारखंड में इसे “ सौम्य काशी “ भी कहा जाता है.
      उत्तरकाशी के विश्वनाथ मंदिर ( Vishwanath Temple ) या वाराणसी के रामेश्वरम मंदिर में पूजा अर्चना किये बिना गंगोत्री धाम की यात्रा के अपूर्ण माने जाने की मान्यता इस मंदिर के महत्व को और भी अधिक बढ़ा देती है ..
        मान्यताओं के अनुसार लगभग पत्थरों के ढाँचे के रूप में इस मंदिर का निर्माण गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह ( Pradyumn Shah) ने करवाया था बाद में उनके बेटे महाराजा सुदर्शन शाह ( Sudarshan Shaah)  की पत्नी महारानी कांति ने 1857 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया. आज मंदिर नवीकरण के बाद भी प्राचीनता को बनाये हुए है, मंदिर की अन्दर की तरफ क दीवारों को चन्दन की लकड़ी में मढ़ दिया गया है, चन्दन की खुशबु गर्भ गृह में शिवलिंग के दर्शन की तरफ बढ़ते हुए शांति, शीतलता का अद्भुत वातावरण निर्मित करती है
     गंगोत्री ( Gnagotri ) धाम के यात्री उत्तरकाशी में रात्री पड़ाव डालते हैं यहाँ से गंगोत्री 96 किमी. की दूरी पर है.



महर गाँव, उत्तरकाशी, उत्तराखंड, ( Mahar Gaon, Uttarkashi, Uttarakhand )




महर गाँव, उत्तरकाशी, उत्तराखंड, ( Mahar Gaon, Uttarkashi, Uttarakhand )

बिखर जाते हैं हम
आगे बढने की चाह में !
मगर जन्नत वहीँ हैं
जहाँ रहते हैं एक ही छाँव में ..
.. विजय जयाड़ा

          गावों में भी प्राय: पाता हूँ कि जिन लोगों के घरों में सम्पन्नता दस्तक दे देती है वे लोग गाँव की ही परिधि में लेकिन मूल घरों से दूर, यहाँ तक कि निर्जन और सुनसान में अपना आशियाना बना लेते हैं !!
कारण कुछ भी हो सकते हैं !!
         महर गाँव, उत्तरकाशी, उत्तराखंड में अभी भी लोग एक दूसरे के बहुत करीब बसे हुए हैं.. महर गाँव से उठने वाली एकता की सोंधी महक बहुत दूर से ही महसूस की जा सकती है। यह महक राह चलते जब मैंने भी महसूस की तो बाइक रोक कर इस गाँव की तस्वीर क्लिक करने का लोभ संवरण न कर सका.