Wednesday 30 September 2015

पहाड़ का " हरा सोना " ; “ बांज ”



पहाड़ का " हरा सोना " ; “ बांज ”


हरयुं भरयुं
मुल्क मेरु
    रौंत्याळु__
  कुमाऊँ-गढ़वाळ...
बानि-बानि का
 डाळा बुटळा,
  डांडी-कांठी...
  उंधारि उकाळ..
   “हरयुं सोनु”__
बांट्दा दिखेदंन
  झुमरयाला...
   बांज का बजांण....
    हरयुं भरयुं__
मुल्क मेरु
   रौंत्याळु__
       कुमाऊँ-गढ़वाल....... 
 
....विजय जयाड़ा 07.04.15
         जैव विविधता लिए और बहु आयामी उपयोगिता के कारण पहाड़ का “ हरा सोना “ कहे जाने वाले बांज (Oak), के वन 1200 मी. से 3500 मी. की ऊँचाई पर पाए जाते हैं.बांज की विस्तृत क्षेत्र में फैली जड़ों द्वारा वर्षा जल को अवशोषित कर, भूमिगत करने का गुण, जलस्रोतों में जड़ी-बूटियों के सत्व युक्त, मौसमानुकूल तासीर लिए जल का सतत प्रवाह बनाये रखता है साथ ही ये जड़ें भूमि कटाव को भी रोकती हैं। बांज की पत्तियाँ सड़-गल कर मिटटी की सबसे उपरी परत में ह्यूमस का निर्माण करती हैं. जलावन के रूप में इसकी लकड़ी, अन्य लकड़ियों की तुलना में अधिक ऊर्जा और ताप देने के कारण सर्वश्रेष्ठ है. कृषि में प्रयुक्त होने वाले कुदाल, दरातीं के मूंठ, हल के नसुड़ा,पाटा बनाने में इस वृक्ष की टिकाऊ व मजबूत लकड़ी का प्रयोग किया जाता है. दुधारू पशुओं के लिए पौष्टिक चारे के रूप दी जाने वाले इस वृक्ष की पत्तियां पशुओं के लिए बिछावन के रूप में भी प्रयोग की जाती हैं. मल -मूत्र में सन जाने के बाद इसकी पत्तियां खेतों के लिए अच्छी खाद बन जाती है. जैव-विविधता को पोषित करते बांज के वनों में झड़ चुकी पत्तियों में विभिन्न वनस्पतियाँ व जंतु शरण पाते हैं ।
      मुक्त पशु चराई के कारण बांज के नवांकुर नष्ट हो रहे हैं. वन संकुचन के कारण चारे और ईंधन के लिए बार-बार कटाई, बांज को ठूंठ (सूखे पेड़) में परिवर्तित कर रही है.
      ऊँचाइयों पर सेब, आलू, चाय के विकसित होते बागान, बांज को लील रहे हैं. ऐसे में समय रहते बांज के अधिकाधिक रोपण, संवर्धन व संरक्षण की आवश्यकता है. कहीं ऐसा न हो, “ विकास “ के नाम पर अनियोजित व अनियंत्रित कटान तथा विपणन में सुलभ फायदेमंद कृषि के लोभ में किसान का मित्र, " पहाड़ का हरा सोना ",
दुआधार, टिहरी गढ़वाल .

चरण आशीर्वाद, भरत मंदिर, ऋषिकेश



चरण आशीर्वाद, भरत मंदिर, ऋषिकेश


        विगत में मैंने पोस्ट्स के माध्यम से श्रृंखलाबद्ध रूप में आपके साथ, अर्जित जानकारी की अधिकतम सीमाओं तक पहुंचकर, ऋषिकेश शहर के संस्थापक मंदिर, भरत मंदिर (ऋषिकेश नारायण) के इतिहास व धार्मिक महत्व से जुडी कई जानकारियाँ, नि:स्वार्थ भाव व पवित्र मन से सेवा रूप में साझा की, यदि उत्साह, अज्ञानता व भूलवश कुछ मिथ्या लिख दिया हो तो ऋषिकेश नारायण जी (भरत जी ) से दंडवत क्षमा याचक हूँ ... भरत मंदिर में उस समय उपस्थित युवा पुजारी जी का भी सहृदय ऋणी हूँ जिन्होंने मुझे पूरा सहयोग दिया ..
       ऋषिकेश जाइएगा तो त्रिवेणी घाट के पास, भरत मंदिर दर्शन अवश्य कीजियेगा. अक्षय तृतीया के दिन दर्शन का विशेष लाभ है. इस दिन मंदिर की 108 परिक्रमाएँ, बद्रीनाथ जी के दर्शन के तुल्य हैं और मनोवांछित फलदायक हैं. इसी पवित्र दिन ऋषिकेश नारायण जी के पवित्र चरणों को दर्शनार्थ अनावर्णित किया जाता है. तत्कालीन टिहरी नरेश प्रदुम्न शाह ने ऋषिकेश क्षेत्र को भरत मंदिर के नाम किया था लेकिन उसके बाद सम्बन्धित जमीन का मंदिर के महंत ने अपने पुत्रों के नाम व्यक्तिगत पट्टा बना दिया ..
       मंदिर में प्रतिष्ठित कुछ प्राचीन मूर्तियों की तस्वीरें कमेन्ट बॉक्स में साझा कर रहा हूँ .. सम्बंधित पोस्ट्स श्रृंखला पर आप सम्मानित साथियों का भरपूर उत्साहवर्धन मिला .. तहेदिल से आभारी हूँ
अब पुजारी जी द्वारा दिए गए ऋषिकेश नारायण जी के चरण आशीर्वाद पश्चात, भरत मंदिर से जुडी जानकारियों को विराम देता हूँ.. सभी सम्मानित साथियों के ऊपर सपरिवार, ऋषिकेश नारायण जी की कृपा बनी रहे ..
 
 
  

Sunday 27 September 2015

रेडियो ऑस्ट्रेलिया से प्रसारण : लाल किला बावड़ी व अग्रसेन की बावड़ी,कनॉट प्लेस


लाल किला बावड़ी व अग्रसेन की बावड़ी,कनॉट प्लेस

 
                                       "सूनी खड़ी ताकती दीवारें बयां करती कुछ ख़ास हैं.
                                          रौनकें बस्ती थी यहाँ , अब फिर उनका इंतज़ार है".
                                                                      (विजय जयाड़ा)
 
http://www.sbs.com.au/yourlanguage/hindi/hi/content/delhi-kee-praacheen-bawdiyan?language=hi

  इस लिंक पर क्लिक कर कार्यक्रम को अवश्य सुनियेगा.. सादर

                      ऐतिहासिक लेखों पर आपके अपार उत्साहवर्धन से ऊर्जा पाकर, पर्यटकों के आकर्षण से दूर सुनसान, उपेक्षित ऐतिहासिक महत्व के स्थानों पर जाकर जानकारी एकत्र कर परिदृश्य में लाने का क्षुद्र प्रयास करता हूँ.. आज “ लाल किला बावड़ी व अग्रसेन की बावड़ी,कनॉट प्लेस “ केन्द्रित, रेडियो कार्यक्रम SBS रेडियो ऑस्ट्रेलिया से प्रसारित हुआ... 

                 जिसमें मेरा आलेख व कुमुद मिरानी जी द्वारा सम्बंधित विषय पर मेरा साक्षात्कार प्रसारित हुआ... आप सभी गुणी साथियों का तहेदिल से धन्यवाद ... हार्दिक धन्यवाद सम्मानित Shivnath Jha जी आपने इस अल्पज्ञ को इतने बड़े मंच तक पहुँचाया व कार्यक्रम की प्रस्तुतकर्ता, सम्मानिता Kumud Merani जी .. आपका सहज व्यवहार मुझमे आत्मविश्वास उत्पन्न करता है .

ईशा खान का मकबरा : दिल्ली



 ईशा खान का मकबरा : दिल्ली


तामीर की जाती हैं इमारतें
   किसी का वजूद कायम रखने में !!
इमारतें भरभरा कर गिर जाती हैं मगर
   मिटता नहीं वज़ूद जलजलों और तूफानों में !!
.... विजय जयाड़ा

           लीजिये ! फोटो में क्या-क्या कवर करना है !! 9 - 10 साल की उम्र के अनजान बच्चे को बता ही रहा था कि सम्यक बाल छायाकार साहब ने अचानक उत्साह में .. दे मारा क्लिक !!
           जब भी किसी ऐतिहासिक स्थान पर जाता हूँ वहां की हर कृति को अपने रिकॉर्ड के लिए कैमरे मैं कैद कर लेता हूँ . इस क्रम में गर्मी – सर्दी – धूप – छाँव – भूख – प्यास – चढ़ाई- उतराई मेरे आड़े नहीं आते. हाँ .. यदि कोई साथ में हो तो वो जरूर थक जाता है और अगली बार मेरे साथ चलने से तौबा कर लेता है !!
          अकेले होने पर तब बहुत समस्या आती है जब क्लिक करते-करते सम्बंधित स्थान का स्वयं-साक्षी बनने का लोभ मन में घर करने लगता है !! फिर तलाशना होता है !!.. किसी क्लिक करने वाले महानुभाव को !! क्लिक करने में विदेशी अधिक उदार ह्रदय होते हैं, शायद कैमरा संचालन सहजता के कारण !! विदेशी बहुत सलीखे से मेरा वांछित फोटो ही नहीं लेते बल्कि मेरे पूर्ण संतुष्ट होने पर ही आत्मीयता के साथ बाय करते हैं.
              अन्यथा न लीजियेगा कई बार ऐसे अवसर भी आये जब स्वदेशी पर्यटकों ने ऐसे भाव प्रदर्शित किये जैसे मैं उन्हें क्लिक करने के लिए कैमरा नहीं !! बल्कि पिन खींचने के लिए ग्रेनेड बम पकड़ा रहा हूँ !! या मैं उनसे कोई घटिया काम करने का निवेदन कर रहा हूँ !! अर्थात एक विशेष प्रकार का " एटिट्यूड " दिखाते हैं !! कोई विदेशी न मिले तो क्लिक करने के लिए मैं किसी समझदार तरुण को उपयुक्त समझता हूँ , क्योंकि वह मेरी बात ठीक से समझना चाहता है ..
               बहरहाल ये तस्वीर हुमायूँ के मकबरे से लगी, शेरशाह सूरी के दरबार में प्रभावशाली अफगान सेनापति ईशा खान नियाजी की विशिष्ट अष्टभुज आकृति में बने मकबरे की है..ईशा खान ने दिल्ली और आगरा से मुगुलों को खदेड़ने में मुख्य भूमिका निभाई थी. मकबरे के चारों तरफ अष्टभुज आकृति में ही बगीचे बने हैं. ईशा खान ने इस मकबरे का निर्माण अपने जीते-जी 1547 में करवा दिया था.अत: ये निर्माण हुमायूँ के मकबरे से भी 20 साल पहले हो चुका था.
             बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक इस मकबरे के अहाते में पूरा एक गाँव बस्ता था जो मुख्यत: मुग़ल वंशज थे. लेकिन वायसराय लॅार्ड कर्जन ने ऐतिहासिक इमारतों के जीर्णोधार के समय सभी अतिरिक्त संरचनाये हटा दी थी
.
 
 

" ग़ालिब की हवेली " : दिल्ली



" ग़ालिब की हवेली " : दिल्ली


शायरी खिलती थी कभी, अब वीराना है यहाँ !
दीवारें बयाँ करती हैं कभी ग़ालिब रहते थे यहाँ !!

  ..विजय जयाड़ा
         चांदनी चौक (शाजहनाबाद) की गलियां जिसने नहीं देखी !! समझिये, उसने दिल्ली देखी ही नहीं !!
मैं चांदनी चौक, बल्लीमारान वाली सड़क पर २०० कदम चलकर सीधे हाथ पर गली, कासिम जान की तरफ मुड़ते ही, बाएं हाथ की तरफ, तीसरे या चौथे घर " ग़ालिब की हवेली ". को दो बार देख आया.
शायरों के लिए तो ये जन्नत से कम नहीं.. कोने-कोने से शायरी की महक !! जीवन के अंतिम वर्ष, ग़ालिब साहब ने इस हवेली में किराये पर गुजारे थे.
        शायरी को माशूका के जुल्फों के साये से आजाद कर शायरी को आम आदमी के भावों का जामा पहनाकर आज भी सभी के दिलों पर राज करने वाले गालिब साहब का नसीब देखिए !! सात संतान हुईं मगर !! कोई भी एक वर्ष से अधिक न जी सका !!
        ग़ालिब साहब, को शायरी के साथ शराब और जुआ खेलने के भी शौक़ीन थे । जनाब जुआ खेलने के चक्कर में जेल भी हो आए थे !!
          उनका कहना था कि जिसने शराब नहीं पी , जुआ नहीं खेला और जेल नहीं गया या फिर माशूक के जूते नहीं खाए --वह शायर हो ही नहीं सकता ।अब मैं तो शायर नहीं .. इसके बारे में शायर साथी ही कुछ फरमा सकते हैं !!
           जनाब कहाँ खो गए आप ?? चचा गालिब के इस शेर पर गौर तो फरमाइये !! चचा इस शेर में न जाने किस कूचे (गली) की बात कर रहे हैं !! हाँ तो कूचे ही कूचे हैं .. ऐसे कूचे भी हैं जहाँ से दुपहिया भी न निकल सके !!
 
                                            " रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके
रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है.. "
.. मिर्जा ग़ालिब
,                  बहरहाल अब, 35 - 40 गज क्षेत्र में बंद बरामदे के साथ लगे दो बड़े कमरे एक छोटी रसोई या लाइब्रेरी, तक ही सिमट कर रह गयी " ग़ालिब की हवेली " की दीवार पर लिखे लोकप्रिय शेर का तस्वीर का आप भी आनंद लीजिये ...
 
 

एक शाम .. गंगा तट के नाम ..


 एक शाम .. गंगा तट के नाम ..


                          आइए .. अल्हड़, मासूम, निश्छल और मस्त बचपन को निहार लें !! अपना बचपन याद कर के थोड़ा मुस्करा लें !!
                        " नहर बतलाकर .... बर्फ में डुबा दिया रे !!!! भाग पप्पू भाग !!! अब तेरी बारी है
. :P :D


माँ गंगा की पुकार !!!



               जागरण Junction पर ये कविता पढ़ी बहुत ही सटीक और अच्छी लगी ...सोचा साझा कर लूँ .

माँ गंगा की पुकार !!!


अपने ही तट, व्यथित ह्रदय ले, दुखियारी मैं नीर बहाऊँ !
दुर्दिन की इस व्यथा-कथा को, किससे जाकर कहाँ सुनाऊँ ?

एक पुत्र अतुलित उद्योगी, लोग भागीरथ जिसको कहते !
मृत्युलोक में किया अवतरित, मुझे तपश्चर्या के बल से !!
जी में आता स्वर्ग – लोक से पुनः उसे धरती पर लाऊँ !
दुर्दिन की इस व्यथा-कथा को, किससे जाकर कहाँ सुनाऊँ ?

पथ निहारते सदियाँ बीती, कोई तो उद्धार करेगा !
स्वच्छ करेगा मेरे जल को, स्नेह दिखा कर प्यार करेगा !
क्षीण-सूक्ष्म धारा दिखती हूँ, नीर नहीं, क्या नीर बहाऊँ ?
दुर्दिन की इस व्यथा-कथा को, किससे जाकर कहाँ सुनाऊँ ?

राजा तनिक नहीं चिन्तातुर, दरबारी सब चाटुकार हैं !
बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, चापलूस, गप्पी, लबार हैं !!
सिंहासन तक कैसे अपने दिल की पीड़ा को पहुचाऊं !
दुर्दिन की इस व्यथा-कथा को, किससे जाकर कहाँ सुनाऊँ ?

बेटे, तुमलोगों के पुरखों, का मैंने उद्धार किया है !
मेरे जल को छू कितनों ने, भवसागर को पार किया है !
तुम ही बोलो अब क्या अपनी छाती तुमको चीर दिखाऊँ ?
दुर्दिन की इस व्यथा-कथा को, किससे जाकर कहाँ सुनाऊँ ?

अंतिम सांस ले रही हूँ मैं, बस कुछ दिन ही और दिखूंगी !
दुर्बल तन पर इतने बंधन, कितने दिन तक और सहूँगी !
अन्तरमन है चूर थकन से, क्या उछलूँ, मैं क्या लहराऊँ ?
दुर्दिन की इस व्यथा-कथा को, किससे जाकर कहाँ सुनाऊँ

ओ मेरे पुत्रों के पुत्रों ! तुम ही अपने कदम बढ़ाओ !
कुछ ऐसा अद्भुत सा कर दो, इतिहासों में नाम लिखाओ !
“सवा अरब बेटों की माता” अखिल धरा पर मैं कहलाऊँ !
दुर्दिन की इस व्यथा-कथा को, किससे जाकर कहाँ सुनाऊँ ?

मेरे तल को गहरा कर दो, बंधन को कम-से-कम कर दो !
प्राण घुट रहे हैं, नवचेतन मिले, पुत्र, ऐसा कुछ कर दो !
पापविनाशिनी पुनः बनूँ मैं, सबको भव से पार कराऊँ !
दुर्दिन की इस व्यथा-कथा को, किससे जाकर कहाँ सुनाऊँ ?

नाहरगढ़ दुर्ग


 नाहरगढ़ दुर्ग

नाहरगढ़ दुर्ग के अंतिम छोर से " गुलाबी शहर " जयपुर का विहंगम दृश्य । यहाँ से सूर्यास्त का मनोहारी दृश्य भी देखा जा सकता है .

हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय


  हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय

                     उत्तराखंड के युवाओं की आशा व भविष्य का प्रतीक हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय 1 दिसंबर 1973 को गढ़वाल विश्वविद्यालय के नाम से स्थापित हुआ बाद में श्री बहुगुणा जी के नाम पर सन 1989 में इसका नाम हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय कर दिया गया. 2009 में इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्राप्त हुआ .. इस विश्वविद्यालय से मैंने स्नातक स्तर तक शिक्षा प्राप्त की ..

मिंड्रोलिंग मठ ...क्लेमेंटाउन ...देहरादून .



मिंड्रोलिंग मठ ...क्लेमेंटाउन ...देहरादून .


                   इस स्थान पर, पर्यटकों की आवाजाही के बावजूद भी... अपूर्व शांति का अहसास... इस स्थान पर प्राकृतिक रूप से होता है...यह मठ बहुत ही सुरम्य ,प्राकृतिक स्थान पर बना है ..छोटे-छोटे बौद्ध भिक्षुओं से बातें कर उनकी दिनचर्या देखकर मन प्रसन्न हो उठता है ..अपर शांति का अहसास होता है.

लक्ष्मण झूला ...ऋषिकेश



लक्ष्मण झूला ...ऋषिकेश ...उत्तराखंड


                         पुरातन कथाओं के अनुसार इस स्थान पर भगवान श्री राम व उनके अनुज लक्ष्मण जी ने गंगा नदी को जूट की रस्सियों की सहायता से पार किया था ..
                        पुराने समय में यहाँ पर जूट की रस्सियों का पुल हुआ करता था सन 1889 में लोहे की रस्सियों का पुल बना पर सन 1924 में बाढ़ में वह भी बह गया ..उसके बाद वर्तमान पुल का निर्माण किया गया ...पहले चार पहिये की छोटी गाडियाँ विशेष अवसरों पर पार करने दी जाती थी...
                       मेरी शादी में भी इस पुल से कार को पार करने दिया गया था ..कुछ समय बाद केवल दो पहिया वाहनों को ही पार करने की अनुमति जारी रही .लेकिन अब कुछ समय में दो पहिया वाहनों पर भी, पुल के पुराने हो जाने के कारण रोक लगायी जायेगी ..तब वाहनों का इस पुल से पार जाना एक इतिहास बन जायेगा.

Naturally build cave



Naturally build cave.with amazing residual structure.Inside..

 

 

Lachhiwala..Dehradun



Lachhiwala..Dehradun


           The verdant forests of Lachhiwala have been attracting travellers in hordes. Being an important picnic spot, people come here along with family and friends to spend some quality time, It is at a distance of just 17 km from Dehradun and 30 minutes drive from Haridwar. Even for the visitors to Dehradun, Lachhiwala is one of the most important sightseeing places.



अलकनंदा नदी ..श्रीनगर .उत्तराखंड



अलकनंदा नदी ..श्रीनगर .उत्तराखंड

                  कैलाश पर्वत से निकलकर अलकनंदा श्रीनगर होकर देवप्रयाग में भागीरथी से मिलकर गंगा कहलाती है ..विष्णु पुराण में अलकनंदा का उल्लेख है ...'तथैवालकनंदापि दक्षिणेनैत्यभारतम्'।...इस नदी का प्रवाह बहुत शांत है ..
                   मेघदूत में वर्णित अलकापुरी को भी कैलाश पर्वत के निकट अलकनंदा के तट पर माना गया है.

Saturday 26 September 2015

प्रथम दिल्ली ,राय पिथौरा किला (लाल कोट) : दिल्ली


 प्रथम दिल्ली ,राय पिथौरा किला (लाल कोट) : दिल्ली

            दिल्ली में रहते लगभग 20 साल यूँ ही गुजर गए !! कल दिल्ली का इतिहास टटोलने की गरज से आधुनिक दिल्ली तक के सफ़र में प्रथम पड़ाव, 1060 में प्रथम निर्मित शहर लालकोट की तरफ प्रस्थान किया, तोमर राजा अनंगपाल ने महरोली के पास प्रथम दिल्ली (लालकोट) बसाई हालाँकि वो शासन सूरजकुंड से चलाते थे, बाद में अजमेर के चौहान राजाओं ने लालकोट पर अधिकार कर दिया और अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने इस शहर का विस्तार कर इसको “ राय पिथौरा” नाम दिया.इसी लालकोट से आधुनिक दिल्ली शहर की कहानी प्रारंभ होती है. पृथ्वीराज की आक्रामकता से मध्य एशिया के दस्यु लुटेरे तुर्क इतने भयभीत थे कि उन्होंने उत्तर पश्चिम सीमाओं में लूटपाट करना बंद कर दिया था. तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने पृथ्वीराज का नाम, भय के पर्याय के रूप में ही  “ राय पिथौरा “ उल्लेखित किया है
          राय पिथौरा किला अब केवल 2 से 6 मी. चौड़ी जीर्णशीर्ण दीवार के अवशेष के रूप में दिखाई देता है इस 2 किमी. दीवार के सरंक्षण में अब तक 2 करोड़ रुपया व्यय हो चूका है  लेकिन शहर के भग्नावशेष दूर दूर तक देखे जा सकते हैं तराईन के प्रथम युद्ध 1191 में पृथ्वीराज के भाई गोविन्दराज के बरछे से घायल मोहम्मद गौरी जब हारकर सेना समेत गजनी वापस भाग रहा था तो पृथ्वीराज की सेना ने 80 मील तक उसका पीछा किया लेकिन घायल गौरी को उसका सैनिक बचा ले जाने में सफल रहा.. काश !! पृथ्वीराज,गजनी तक उसका पीछा कर उसको समाप्त कर देता !! तो 1192 में तराईन के द्वितीय युद्ध में जयचंद व अन्य राजपूत राजाओं द्वारा संयोगिता प्रकरण व दूसरी महत्वाकांक्षा के कारण गौरी का साथ देने से  पृथ्वीराज की हार न हुई होती !! जिसके फलस्वरूप प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से दिल्ली 1947 तक विदेशियों के हाथों चली गयी !! शक्ति दंभ के कारण अन्य राजपूत राजाओं से दूरी व विलासिता के कारण शासकीय कार्यों में अरुचि के कारण प्रजा में असंतोष भी कहीं न कहीं, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष  रूप से पृथ्वीराज के पतन का कारण बनी !!
कहा जाता है दिल्ली 18 बार बसी और उजड़ी , मोहम्मद गौरी, तैमूर लंग, अहमद शाह अब्दाली, नादिर शाह और अंग्रेजों ने दिल्ली को खूब लूटा और कत्लेआम मचाया. अहम्, पारस्परिक ईर्ष्या व महत्वाकांक्षा के चलते ही विदेशियों ने भारत को खूब लूटा. घर के भेदियों ने विदेशियों को अपने अहम्, ईर्ष्या और महत्वाकांक्षा को तृप्त करने के लिए सहयोग किया लेकिन वे अतृप्त ही रहे !! विदेशियों के हाथों उनका भी वही हश्र हुआ. अगली  पीढ़ी को जलालत व गुलामी की ज़िन्दगी,अवश्य इनाम में मिली !!
इतिहास हमें अपनी भूलों को सुधारने का अवसर देता है. हमारी सबसे बड़ी कमी यही रही कि हमने सदैव रक्षात्मक युद्ध किया और अपनी सीमाओं को बचाने के लिए ही युद्ध किया.. यदि हमने राष्ट्रहित में  ईर्ष्या व बैर भाव त्यागकर आक्रामक रूप में शत्रु की सीमाओं में घुसकर युद्ध किया होता तो शायद विदेशी आक्रान्ता भारत की तरफ नजर उठा कर भी देखने का साहस नहीं कर पाते .
          आज बदली परिस्थितियों में भी विदेशी नए सिरे से व रूप में आपसी कलह का फायदा उठाने की हरदम ताक में बैठा है !!.आपसी मुद्दों को हम मिल बैठ कर इमानदारी से बाद में भी सुलझा सकते हैं ..   आज गुलामी का स्वरुप बदल चुका है !!. मानवीय गुलामी की जगह आर्थिक गुलामी कई देशों को जकड़ चुकी है.
विद्वत साथियों,
" सीख हम बीते युगों से नए युग का करें स्वागत "
" अब कोई गुलशन न उजड़े .. अब वतन आजाद है। "


अल्लाई मीनार ,क़ुतुब काम्प्लेक्स , दिल्ली


अल्लाई मीनार ,क़ुतुब काम्प्लेक्स , दिल्ली

         दिल्ली का इतिहास टटोलने के क्रम में अल्लाई मीनार पहुँच गया. पुरातात्विक मानचित्र पर क़ुतुब कॉम्प्लेक्स के 40 से अधिक पुरातात्विक महत्व के स्मारकों में से एक, क़ुतुब मीनार दिल्ली की पहचान भी है, अधिकतर पर्यटक कुतुबमीनार, लौह स्तम्भ या कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के आस-पास ही दिखाई देते हैं लेकिन चंद कदम दूर एक तरफ शांत खड़े अल्लाई मीनार के अनगढ़ पत्थरों के ढांचे, जो कि अल्लाउद्दीन खिलजी की अति महत्वाकांक्षा को बयां करता जान पड़ता  है, की तरफ कम ही लोग रुख करते हैं !  
             अल्लाउद्दीन  सिकंदर महान की तरह ख्याति अर्जित करना चाहता था. इसलिए उसने सिकंदर-ए-सानी की उपाधि भी धारण की थी ..उसका सम्पूर्ण शासनकाल युद्धों में ही व्यतीत हुआ.
अल्लाउद्दीन खिलजी दक्षिणी भारत में कई जीत प्राप्त करने वाला पहला मुस्लिम सुलतान था. इन विजयों को चिर स्मरणीय बनाने के उद्देश्य से, कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद को चार गुना बड़ा बना देने के बाद, मस्जिद के आकार से मिलान करती और क़ुतुब मीनार से दो गुना ऊँची मीनार बनाने के अपने विचार को मूर्त रूप देने की ठानी थी. नामुमकिन डिजाइन वाली इस ईमारत का प्रथम तल भी पूर्ण नहीं हो पाया था कि अल्लाउद्दीन की 1316 में अचानक मृत्यु हो गयी इसके  उपरांत अयोग्य उत्तराधिकारियों के कारण,  स्मारक का निर्माण अंजाम तक न पहुँच सका !!
       अल्लाउद्दीन को बाजार मूल्य व्यवस्था पर कठोर नियंत्रण के लिए जाना जाता है वस्तुओं के कम दामों के बावजूद भी उसके सैनिकों की तनख्वाह (184 टंका वार्षिक), बाद के सुल्तानों के सैनिकों से अधिक थी. तुलनात्मक रूप से कहा जाय तो अल्लाउद्दीन के सैनिक की तनख्वाह अकबर के सैनिकों से 6 रुपये कम और शाहजहाँ के सैनिकों की तनख्वाह से 24 रुपये अधिक थी.. लेकिन अल्लाउद्दीन का समय पहले का होने के कारण सैनिकों की तनख्वाह सबसे अधिक कही जा सकती है .
        अल्लाउद्दीन शासन  से आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों पर कठोर शासकीय  नियंत्रण द्वारा आम जनता को राहत देने तथा देश की सीमाओं पर अपनी जान तक न्योछावर कर देने वाले सैनिकों को दी जा सकने वाली अच्छी सुविधाओं हेतु, प्रेरणा अवश्य ली जा सकती है ..

" फांसी घर ", पुरानी जेल मौलाना कलाम मेडिकल कॉलेज, दिल्ली .. भाग -1


 " फांसी घर ", पुरानी जेल 

मौलाना कलाम मेडिकल कॉलेज, दिल्ली

        आज रिंग रोड पर मौ.आ. मेडिकल कॉलेज के गेट पर, दि.न. नि. के शिलापट्ट पर लिखे “पुरानी जेल“ ने बरबस ही ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया. बाइक वहीँ किनारे खड़ी कर परिसर के अन्दर प्रवेश किया . लेकिन वहाँ न कोई जेल दिखी न ही कोई खंडहर !! एक छोटे से पार्क के गेट पर लिखा था “ फांसी घर “ !!
        हार्डिंग बम कांड के स्वातंत्र्य वीर, मास्टर अमीर चंद, भाई बाल मुकुंद, मास्टर अवध बिहारी को 8 मई 1915 को इसी स्थान पर फांसी दी गयी थी..
लेकिन शायद ही 8 मई के अलावा, जब दिल्ली के मुख्यमंत्री यहाँ शहीदों को श्रद्धांजलि देने आते हैं, कोई पर्यटक इधर का रुख करता हो !!
          ऐसा प्रतीत होता है कि शहीदों को जलान्जुली देते हुए जल भी सहम कर थम गया है और रीती अंजुली जल की प्रतीक्षा में शहीदों को कृतज्ञता व्यक्त करने को बेताब, जुडी हुई हैं !!
            आश्चर्य होता है ये सोचकर कि दिल्ली के सौन्दर्यीकरण पर होने वाले भरी भरकम खर्च के बावजूद भी क्या इन अंजुलियों को जल की प्रतीक्षा में यूँ ही रहना होगा !!
            उचित देख रेख की कमी के कारण अंजुली में जलप्रवाह नहीं है !! 


 

“ फांसी घर ", पुरानी जेल मौलाना कलाम मेडिकल कॉलेज , दिल्ली भाग-2



“ फांसी घर ", पुरानी जेल 

मौलाना कलाम मेडिकल कॉलेज , दिल्ली


गत पोस्ट से निरन्तर ...
        जब 1911 में अंग्रेजों ने कलकत्ता से राजधानी दिल्ली लाने का निश्चय किया तो ये बात रास बिहारी बोस जैसे देशभक्तों को नागवार गुजरी. उन्होंने देशभक्त साथियों के साथ मिलकर तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिंग की बम फेंक कर हत्या करने की ठान ली. इस काम के लिए रास बिहारी जी ने राजकीय सेवा से 37 दिन का अवकाश लिया (उस समय वे फारेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट, देहरादून में लिपिक के पद पर कार्यरत थे). बम फेंकने के लिए 20 वर्षीय बसंत कुमार विश्वास को चुना गया.
दिल्ली को राजधानी हस्तांतरण किये जाने के उपलक्ष्य में, 23 दिस.1912 को लार्ड हार्डिंग हाथी पर बैठकर जुलूस के आगे-आगे, 500 वर्दीधारी और 2500 बिना वर्दी के सुरक्षा कर्मियों के साथ चल रहे थे, जुलूस चांदनी चौक पर पंजाब नेशनल बैंक के पास दोपहर 11.45 पहुंचा ही था की 20 वर्षीय बसंत कुमार विश्वास ने महिला वेश में हार्डिंग पर बम फैंक दिया. बम की आवाज 6 मील दूर तक सुनाई दी, हार्डिंग को काफी चोटें आई और उनका महावत मारा गया.
           खोजी दस्ते के विपरीत दिशा में जाने का फायदा इन देशभक्तों ने उठाया और आसानी से भागने में सफल हो गए. बाद में बसंत कुमार विश्वास को पिता को मुखाग्नि देते हुए गिरफ्तार कर लिया गया, पहले उनको नाबालिक होने के कारण उम्र कैद की सजा हुई लेकिन अंग्रेज उनको जीवित नहीं छोड़ना कहते थे उनकी अधिक उम्र को साबित कर बसंत कुमार को अम्बाला में 9मई 1915 को फांसी की सजा दी गयी रास बिहारी बोस जापान भागने में सफल हुए. 8मई 1915 को इसी स्थान पर मास्टर अमीर चंद, भाई बाल मुकुंद और मास्टर अवध बिहारी को फांसी दी गयी ..
        अंग्रेजों के समय यह स्थान जेल हुआ करता था, हजारों देशभक्तों को यहाँ यातनाएं दी गयी, अनेकों को फांसी दी गयी. द्वितीय विश्व युद्ध के समय अमेरिकी सैनिकों की चिकित्सा के लिए यहाँ अस्पताल बना दिया गया, जो युद्धोपरांत अमेरिका ने अंग्रेजों को हस्तांतरित कर दिया. जिसे मेडिकल कॉलेज के रूप में विकसित किया गया जो स्वतंत्र भारत में मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज के रूप में देश की सेवा कर रहा है ..
         देशभक्तों की शहादत के यहाँ कोई अवशेष नहीं हैं तस्वीर में दिखाई दे रहे छोटे से पार्क में उस समय के ये पांच पत्थर शहीद देशभक्तों के जज्बे की कहानी मूक स्वर में बयां करते जान पड़ते हैं.
शहीदों की याद में पार्क में बनाया गया ऊंचा स्मारक व 14 शहीदों के नाम लिखा शिलापट्ट, बाद में शीला दीक्षित सरकार के समय बनाया गया है.
          स्वातंत्र्य वीरों के जन्म दिवस व शहादती दिवस पर हम उनकी प्रतिमाओं पर श्रद्धांजलि देकर इतिश्री कर संतोष कर लेते हैं लेकिन उनकी देशप्रेम की भावनाओं को निरंतर जागृत रखने के लिए, बनाये गए इन स्मारकों की तरफ न जाकर हम शॉपिंग माल की चकाचौंध, फन पार्कों में मौज मस्ती और " लवर्स पॉइंट " तलाशते हैं !! . मैं किसी बहस को नहीं उकसा रहा लेकिन एक बात अवश्य कहना चाहूँगा की भावी पीढ़ी में देशप्रेम के संस्कार हस्तांतरित करने के लिए, सपरिवार इन शहादत के मंदिरों का भी रुख कर लिया जाय तो वह समाज हित व देश हित में ही होगा. सर्वधर्म सम्भाव वास्तविक रुप में, इन्हीं स्मारकों में परिलक्षित होता है । 


चीड़ एक बहुउपयोगी वृक्ष : नई टिहरी

चीड़ एक बहुउपयोगी वृक्ष : नई टिहरी

         जब नई टिहरी पहुंचा तो स्वयं को चीड़ के जंगल के मध्य पाकर मुझे चीड़ के जंगल से घिरे पौड़ी में, तत्कालीन सरकारी आवास में बीता अपना बचपन याद आ गया !! तब आज की तरह आधुनिक मनोरंजन के साधन उपलब्ध नही थे, प्रकृति के आँगन में प्रकृति प्रदत्त सामग्री को मूल रूप में ही बाल क्रीडाओं की सामग्री बनाकर उन्मुक्त व अपार आनंद की अनुभूति होती थी.
         चीड की मोटी छाल को घिसकर “ घुर्रा “ (धागा डालकर दोनों हाथों की उँगलियों से घुमाया जाने वाला खिलौना) बनाते थे, गर्मियों में बाल टोली हवाखोरी करती सड़क के किनारे पड़े चीड़ के बीज उठा-उठाकर खाने में आनंद लेती थी , सबसे ज्यादा आनंद सूखी चीड़ की पत्तियों को बोरे में भरकर ऊँचाई में ले जाकर फिसलने में आता था और ये साहसिक खेल भी माना जाता था क्योंकि अधिक ऊँचाई से फिसलने की होड़ में संतुलन बिगड़ने से हाथ-पैर की हड्डी अक्सर टूट जाती थी.
चीड़ की मोटी बाहरी छाल में कठफोड़वे द्वारा भोजन की तलाश में अनवरत चोंच मारने से उत्पन्न होने वाली कट-कट की ध्वनि, सुनसान में अलग तरह का मधुर संगीत उत्पन्न करती थी .. ये तो रही बचपन की बात, अब विषय पर आता हूँ..
        सामान्यत: 3- 80 मी. तक ऊँचे और 100 से 100० वर्ष तक जीवित रहने वाले ( नेवदा, अमेरिका में 4600 वर्ष पुराना चीड का जीवित वृक्ष है ) चीड के वृक्ष को भूमि में अम्लता बढ़ाने और भूमि को खुष्क करने का दोषी मानकर, पर्यावरणविद वक्र दृष्टि से देखते हैं लेकिन इस वृक्ष की उपयोगिता को कम करके आंकना भी उचित नहीं, हालाँकि खुले में रखने पर चीड़ की लकड़ी की उम्र 2 वर्ष ही होती है लेकिन दुनिया में प्रयोग की जाने वाली उपयोगी लकड़ी में 50 % हिस्सा चीड़ का ही है !
इमारती और फर्नीचर के रूप में प्रयोग की जाने वाली चीड़ की नर्म लकड़ी अब पार्कों और रेस्टोरेंट्स को प्राकृतिक छटा देने में प्रयोग की जाने लगी है.
       चीड़ से प्राप्त होने वाले रेजिन की उपयोगिता से कौन वाकिफ नहीं !! इसकी मोटी बार्क (छाल) के अन्दर वाली पतली सफ़ेद छाल ( बचपन में हम इसे स्वाद के कारण खाया करते थे) में विटामिन A और C प्रचुर मात्रा में पाया जाता है और कई देशों चीड़ की पत्तियों से चाय बनाने से भी विटामिन A और C प्राप्त किया जाता है.इसकी नुकीली पत्तियों के रेशे से टोकरियाँ व बैग आदि बनाये जाते हैं ..साथ ही इन पत्तियों से प्राप्त होने वाला तेल औषधि में प्रयोग किया जाता है.
       चीड़ की पत्तियों से टकराकर बहने वाली वायु कीटाणुरहित होती है, इसी कारण पुराने समय में, अन्य लोगों को संक्रमण से बचाने व स्वच्छ वायु प्राप्त करने हेतु तपेदिक (Tuberculosis) के रोगी को, चीड के जंगल में रहने की व्यवस्था की जाती थी.
        भौगौलिक बनावट के कारण उत्तराखंड में चीड़ काफी पाया जाता है अत: राज्य सरकार को उच्च तकनीक को प्राप्त कर चीड़ आधारित उद्योग विकसित करने चाहिए इससे स्थानीय लोगों को स्वरोजगार मिलेगा साथ ही राज्य का चीड़ से से जुड़ा अतिरिक्त राजस्व भी बढ़ेगा ..
 
 

बड़ा होकर बस बनूँगा ..




                   गर्मियों में ऋषिकेश से दिल्ली तक के थकाऊ सफ़र में खतौली, कई मायनों में, एक " यादगार " पड़ाव साबित होता है ..लेकिन अबकी बार इस महिंद्रा जीप पर लिखे वाक्य ....
" में बड़ा होकर बस बनूँगा "
           ने इस थकाऊ सफ़र को हास्य मिश्रित कौतुहल के रंग में रंग कर कुछ खुशनुमा अवश्य किया ..

ग़ालिब की हवेली : दिल्ली



 ग़ालिब की हवेली : दिल्ली


          कहा जाता है जिसने पुरानी दिल्ली की गलियां नहीं देखी, उसने दिल्ली नहीं देखी !! तो इसी जिज्ञासा से मैं इन गलियों से रूबरू होने पहुँच गया बल्लीमारान, चांदनी चौक !! गली कासिम जान की तरफ मुड़ते ही मुग़ल स्थापत्य कला को दर्शाती उस हवेली के विशाल द्वार की ओर मुखातिब हुआ, जो मुगलिया सल्तनत के पतन के दौरान उजड़ते बाज़ार, जमींदोज की जाती हवेलियों और कत्लेआम उपरान्त लाशों के अम्बार की मूक गवाह है.
         दरअसल ये हवेली ‘ ग़ालिब की हवेली´” के नाम से जानी जाती है. 27 दिस. 1796 को जन्मे, उर्दू और फ़ारसी शायरी और ग़ज़ल के अज़ीम शहंशाह मिर्ज़ा ग़ालिब इस हवेली में नौ साल रहे थे और उन्होंने यहाँ उर्दू और फारसी में “ दीवान “ की रचना की थी. हवेली में पहुँचते ही आपको हर कोने से शायरी की खुशबु महसूस होगी. आप उसी काल खंड में खो जायेंगे, किसी शायर के लिए ये हवेली प्रेरणा से भरपूर और जन्नत से कम नहीं यहाँ ग़ालिब साहब द्वारा लिखी पुस्तकें व उनकी हस्तलिखित कवितायेँ भी आप देख सकते हैं.
         मिर्ज़ा साहब का शेरो शायरी पर महारत होने का अहसास व आत्मविश्वास उनके इस शेर में साफ झलकता है.. बहादुर शाह जफर के उस्ताद व समकालीन शायर जौक साहब से उनकी स्वस्थ तकरार व प्रतिस्पर्धा बनी रहती थी।

" हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
       कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाजे-ए बयाँ और "
         अधिकतर संग्रह की गई वस्तुएं उस काल में प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं की अनुकृतियां हैं. ग़ज़ल को प्यार के इज़हार के माध्यम से हटकर दार्शनिक स्वरुप देने वाले व बहादुर शाह जफ़र के दरबारी कवि, ग़ालिब साहब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के उपरांत राजकीय उपेक्षा के शिकार रहे. 15 फरवरी 1869 को आर्थिक तंगी के दौर से गुज़रते मिर्ज़ा साहब की मृत्यु के बाद इस हवेली में बाज़ार लगने लगा लेकिन 1999 में भारत सरकार ने इस विशाल हवेली के एक भाग को नियंत्रण में लेकर जीर्णोद्धार किया और संरक्षित विरासत घोषित कर दिया.
         यदि आप वाहन से लाल किला पर उतर रहे हैं तो यहाँ पैदल ही पहुँच सकते हैं. मेट्रो से चावडी बाज़ार स्टेशन पर उतर कर यहाँ पहुंचा जा सकता है. सोमवार को अवकाश रहता है शेष दिन, सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुला रहता है. प्रवेश नि:शुल्क है और फोटोग्राफी वर्जित नहीं है....
  

किला सुरक्षा व्यवस्था : जयगढ़ दुर्ग (किला) , जयपुर



किला सुरक्षा व्यवस्था : जयगढ़ दुर्ग (किला) , जयपुर


            यदि मुगलकालीन समय के किलों की सुरक्षा व्यवस्था का अवलोकन किया जाय तो किले की मुख्य दीवार पर दुश्मन को रोकने के लिए प्राय: ये तीन छिद्र्नुमा आकृतियाँ दिखाई देंगी .. 
             तीनों की छिद्र दीर्घता उनके उपयोग के अनुरूप बनायीं गयी है .. सबसे बड़ा छिद्र तोप के लिए, उससे कम दीर्घता लिए छिद्र, लम्बी नाल वाली बन्दूक के लिए और सबसे नीचे तल से लगा हुआ छिद्र, दोनों की विफलता उपरांत गर्म तेल प्रवाहित करने के लिए हुआ करता था.
         हालाँकि जहाँ सुलभ था वहां किले के चारों तरफ पानी की नहर हुआ करती थी जिससे दुश्मन किले की दीवार को पार न कर सके यदि फिर भी शत्रु इस सुरक्षा घेरे को तोड़ने में कामयाब होता जाता था तो किले के ऊपर दीवारों से इन छिद्रों से गर्म तेल प्रवाहित कर शत्रु को रोकने की कोशिश की जाती थी...


महाभारत कालीन भैरव मंदिर, पुराना किला : दिल्ली


             महाभारत कालीन भैरव मंदिर, पुराना किला : दिल्ली


            कल रविवार था. पत्नी के आग्रह पर पत्नी व बेटी के साथ कालका जी और भैरव जी के दर्शन करने पहुँच गया. दोनों ही स्थान दिल्ली में विशिष्ट स्थान रखते हैं तस्वीर में पुराने किले ( पांडवों का किला) की चारदीवारी से सटे, महाभारत कालीन भैरव मंदिर का मुख्य द्वार स्पष्ट दिखाई दे रहा है. कहा जाता है 

           महाभारत युद्धोपरांत जब युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर में नीलम के सवा गज ऊँचे शिवलिंग की स्थापना करनी चाही तो आसुरी शक्तियों ने स्थापना में व्यवधान उत्पन्न किया तब श्री कृष्ण ने उनको भैरव की सहायता लेने का आदेश दिया. भैरव तैयार हो गए लेकिन शर्त थी कि भीम के कंधे पर बैठकर ही हस्तिनापुर आयेंगे, भीम उनको लेकर चले लेकिन भ्रम वशात यहीं पर अवस्थित कर दिया. जब भीम को यह ज्ञान हुआ तो उन्होंने भैरव को फिर हस्तिनापुर चलने को कहा लेकिन भैरव दिए गए वचनानुसार यहाँ से आगे चलने को तैयार नहीं हुए और भीम को रक्षा का विश्वास दिलाकर यहीं स्थित हो गए.हस्तिनापुर में आसुरी शक्तियों के उत्पात के समय भीम ने भैरव बाबा का स्मरण किया और भैरव बाबा ने उनका मर्दन किया.
           भयग्रस्त असुरों ने यहाँ आकर भैरव को मनाकर खुश करने के लिए मदिरापान करवाया जिस कारण आज भी यहाँ भैरव बाबा को कार्यों में विघ्न समाप्त करने मन वांछित फल पाने की आस में बाबा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से पूजा अर्चना की जाती है तथा मदिरा चढ़ाई जाती है और प्रसाद के रूप में ग्रहण की जाती है. इस स्थान पर भैरव बाबा को ग्राम देवता के रूप में स्थापित किया गया था.
        बेटी की पढाई की व्यस्तता से उत्पन्न समय अल्पता के कारण ज्यादा गहराई से स्थान का अध्ययन न कर सका लेकिन जिज्ञासा अवश्य जागृत हुई जल्दी ही पुन: इस स्थान का रुख करने की अभिलाषा है ...



“ चुन्नामल की हवेली “ : दिल्ली



  “ चुन्नामल की हवेली “ : दिल्ली

            ग़ालिब की हवेली के बाद चाँदनी चौक मुख्य सड़क पर लाल किला की तरफ वापस आते हुए बाएं हाथ पर कटरा (Market) नील में बनी इस हवेली से रूबरू हुआ. 1848 में एक एकड़ भूमि पर निर्मित, 128 कमरे वाली इस हवेली में आज भी इसको बनाने वाले कपडा व्यवसायी राय लाला चुन्नामल के वंशज रहते हैं. यह हवेली “ चुन्नामल की हवेली “ के नाम से जानी जाती है.
        1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय चुन्नामल दिल्ली के सबसे अमीर व्यक्ति थे कहा जाता है कि लचर अर्थ व्यवस्था से जूझ रही मुग़ल सल्तनत के बादशाह भी उनसे धन उधार लिया करते थे. दिल्ली में गाड़ी और टेलीफोन रखने वाले वे पहले व्यक्ति थे. 1857 के बाद दिल्ली में अंग्रेजों के नियंत्रण के पश्चात, अंग्रेजों ने चुन्नामल को प्रसिद्ध फतेहपुरी मस्जिद 19000 रुपयों में बेच दी थी लेकिन 1877 में इस क्षेत्र में मुस्लिम आबादी की वापसी के बाद, चार गावों के एवज में फतेहपुरी मस्जिद पुनः वापस ले ली और मुस्लिम संप्रदाय को दे दी गई।
       स्वयं में इतिहास संजोये ये हवेली “ दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम 1958 “ का सरेआम मजाक उड़ाते हुए भी जान पड़ती है 1971 में इस हवेली में स्थित 132 दुकानों को 75 रुपये प्रतिमाह की दर से किराये पर दिया गया था. आज जगह की कीमत और व्यापार भी कई गुना बढ़ चुका है लेकिन दिल्ली के              इस प्रमुख व्यावसायिक जगह पर, व्यवसायी, अधिनियम के संरक्षण में आज भी प्रतिमाह 75 रुपये किराये के रूप में अदा कर रहे हैं !! चांदनी चौक जैसी व्यावसायिक जगह पर राय लाला चुन्नालाल के वंशज अनिल प्रसाद 132 दुकानों का कुल मासिक किराया मात्र 9000 रुपये प्राप्त करते हैं !! और खुद अपना व्यवसाय चलाने के लिए दूसरी जगह पौने दो लाख मासिक किराया देते हैं !!
        यदि आप इस हवेली के अन्दर फोटोग्राफी करने की सोचें रहे हैं तो इसमें रहने वालों के असहयोग के कारण निराशा ही हाथ लगेगी..वैभवमय अतीत को बयां करती ये हवेली, मकान मालिक और किरायेदारों के विवादों के चलते, रख-रखाव से वंचित दिखी !!

लाल किला बावड़ी


लाल किला बावड़ी

लाल किले से आई आवाज .... सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज


          कटरा नील से लाल किला तक के कई ऐतिहासिक स्थलों का वर्णन, फिलहाल टाल कर आपको लाल किले में स्थित उस तुगलक कालीन बावड़ी से रूबरू करवाना चाहूँगा जो स्वतंत्रता संग्राम के निर्णायक मोड़ को बयां करती है !!
          दर असल जब भी पर्यटक लाल किले में प्रवेश करते हैं तो लाहौरी गेट से प्रवेश कर छज्जा बाजार पार करते हुए नौबत खाना होते हुए दूसरी इमारतों की ओर बढ़ जाते हैं बावड़ी की तरफ इक्का-दुक्का पर्यटक या शोधार्थी ही रुख करते हैं !! मैंने भी कई बार ऐसा ही किया लेकिन अबकी बार छज्जा बाजार से आगे बाएं होकर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी संग्राहलय होते हुए इस बावड़ी पर पहुँच गया. बावड़ी के बाहर गेट पर ताला लगा हुआ था लेकिन मेरी जिज्ञासा व उत्सुकता पर पसीजते हुए सुरक्षाकर्मी ने गेट खोल कर अपनी निगरानी में शीघ्रता की हिदायत देकर मुझे अवलोकन का अवसर दिया.
         तस्वीर में मेरे दायें हाथ की तरफ खुले कक्ष हैं जबकि बाएं हाथ की तरफ वाले खुले कक्षों को बाद में अंग्रेजों अस्थायी जेल बनाने के लिए ने बंद किया था !! इन्हीं कक्षों में अस्थायी जेल के तौर पर ऐतिहासिक “ लाल किला ट्रायल “ के दौरान आजाद हिन्द फ़ौज के अग्रणी अधिकारियों, कर्नल प्रेम कुमार सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह और मेजर जनरल शाहनवाज खान को कैद रखा गया था.
         द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के समर्पण के बाद, अंग्रेजी हुकूमत ने आजादी के इन जांबाज रणबाकुरों पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया था.इसी तरह के नौ अन्य मुक़दमे, बंदी बनाये गए 17000 आजाद हिन्द सेनानियों पर अलग-अलग चलाये गए. कर्नल गुरुबख्श सिंह को अकाली दल ने और मेजर जनरल शाहनवाज खान को मुस्लिम लीग ने उनके लिए मुकदमा लड़ने की पेशकश की थी लेकिन कौमी एकता के इन पेरोकारों ने उनकी पेशकश को ठुकरा दिया और कांग्रेस द्वारा गठित डिफेन्स टीम को अपना मुकदमा लड़ने की स्वीकृति दे दी.
         मुकदमा खुले में चलता था हर कोई कार्यवाही को देख सकता था सर तेज बहादुर सप्रू, कैलाशनाथ काटजू, भूला भाई देसाई, जवाहर लाल नेहरु आदि जैसे कई नामी वकील बचाव पक्ष की वकालत करने स्वेच्छा से थे.सर सप्रू के स्वास्थ्य ख़राब हो जाने के कारण भूला भाई देसाई ने मुक़दमे की पैरवी की. 57 दिनों, (15 नवम्बर1945 से 31 दिसंबर 1945) तक उनकी मजबूत दलीलों से मुक़दमे का फैसला बंदी सिपाहियों के पक्ष में दिया गया और सभी सिपाहियों की सजाएँ माफ़ कर दी गयी.
किले में मुकदमा चलता था और धार्मिक संकीर्णताओं से ऊपर उठकर लाल किले के बाहर सड़कों और पूरे मुल्क में तीनों की लम्बी उम्र की दुआएं की जाती थी. नारा लगाया जाता था ... “ लाल किले से आई आवाज .... सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज “
        यह ट्रायल पूरे देश में गज़ब की एकता की लहर लाने में कामयाब हुआ, मुंबई में नौ सेना की टुकड़ी ने विद्रोह कर दिया. कल तक जो राजनेता ब्रिटिश सरकार का मुखर विरोध नहीं कर पाते थे अब वे खुल कर विरोध करने लगे थे. इस ट्रायल से पूरे देश में उमड़े राजनीतिक, सामजिक एकता व देश भक्ति के सैलाब से अंग्रेज अन्दर तक हिल गए अब उनको अपने सैनिकों की वफादारी पर सन्देश होने लगा !! वे खुद को असुरक्षित समझने लगे !! भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अनेकों जनांदोलनों में से एक “ लाल किला ट्रायल ", एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ फलस्वरूप अंग्रेज हुकूमत 15 अगस्त 1947 को बातचीत के माध्यम से सत्ता हस्तांतरण को बाध्य हुई. 

                                          सत्य ही कहा गया है ..." एकता में ही बल है ."
            जब भी लाल किला जाइएगा तो इस ऐतिहासिक बावड़ी को देखकर आजाद हिन्द फ़ौज के जांबाज रणबाकुरों को नमन करना न बिसार दीजिएगा !!

हुमायूँ का मकबरा : दिल्ली



  हुमायूँ का मकबरा : दिल्ली



ताउम्र भटका वो दर- बदर,
सितमगर को सुकूं न मिला !!
मिला सुकून ताबूत में, मगर
पहरे पर सितमगर ही मिला !!
.. विजय जयाड़ा
        4-5 दिन से घर में रजाई में बैठे-बैठे उबाऊ महसूस कर रहा था कल धूप निखर आई तो उत्साह और उमंग का संचार हुआ और पहुँच गया उस अभागे बादशाह के चिर शयन स्थल पर, जो जीवन भर, कपटी व विश्वासघाती भाइयों के चलते कभी चौखंडी (वाराणसी) के स्तूप में छिपने को मजबूर हुआ, कभी जान बचाने की खातिर गंगा में कूदा, कभी पर्सिया पहुँचने की चाह में बीहड़ जंगलों में भूखा प्यासा चलता रहा, आठ माह की गर्भवती पत्नी, (जो जन्म के बाद अकबर कहलाया) जिसे देखभाल की जरुरत थी, उस पत्नी को लेकर थार मरुश्थल की भीषण गर्मी में प्यासा लाचार सा भटकता रहा !!
       जी हाँ , आप बिलकुल सही समझे.. ये 1572 में, हुमायूँ की विधवा पत्नी हामिदा बानो बेगम के निजी धन, 15 लाख रुपये की लागत से निर्मित और मुग़ल साम्राज्य की नीव डालने वाले बदनसीब बादशाह हुमायूँ (6 मार्च 1508 – 22 फरवरी, 1556) का मकबरा है
        भारत में मुग़ल स्थापत्य की शरुआत इसी मकबरे से हुई कहा जाता है कि ताजमहल के निर्माण का प्रेरणास्रोत हुमायूँ का मकबरा ही है, भारत में यहीं से बाग़ में बने मकबरों में बादशाह को दफ़नाने की परंपरा शुरू हुई. ताजमहल की तरह चारबाग शैली में निर्मित ये मकबरा ताजमहल जैसा ही प्रतीत होता है . गर्भ गृह में हुमायूँ की कब्र है और साथ के कक्षों में दारा शिकोह समेत शाही परिवार की दस अन्य कब्रें हैं..
       1540 में भाइयों के विश्वासघात व शेरशाह सूरी के अधिपत्य के बाद हुमायूँ लगभग 15 साल निर्वासित जीवन जीने को विवश हुआ था. कठिन परिस्थितियों से गुजरते हुए 1555 में हुमायूँ ने अपना साम्राज्य पुन: प्राप्त किया. हुमायूँ को पढने का बहुत शौक था दीनापनाह (पुराने किले) में “शेर मंडल” लाइब्रेरी में हुमायूँ नियमित अध्ययन करने जाता था. एक दिन अजान की पुकार सुनकर हुमायूँ दोनों हाथो में पुस्तकें लेकर तेजी से सीढ़ियों से उतर रहा था तो ठोकर खाकर कई सीढ़ी नीचे आ गिरा यही घटना उसकी मौत का कारण बनी. कठिनायों से दुबारा प्राप्त साम्राज्य का उपभोग भी न कर सका !!
हुमायूँ के बारे में कहा जाता है .... “ हुमायूँ, जीवन भर ठोकरें खाता रहा और उसके जीवन का अंत भी ठोकर खाकर ही हुआ !!”
       पिता, बाबर को मरते समय दिए गए वचन कि.. " भाइयों के विरुद्ध कभी दंडात्मक कार्यवाही मत करना बेशक वे दंड के पात्र ही क्यों न हों".., को हुंमायूं ने जीवन भर निभाया. हुंमायूं को शालीन व्यक्तित्व के कारण मुगलों में इंसान-ए-कामिल (Perfect Man) की उपाधि मिली थी.
मृत्यु के बाद हुंमायूं को पुराना किला में दफना दिया गया लेकिन 1558 में हिन्दू राजा हेमू ने जब पुराना किला पर अधिकार कर लिया तो भागते मुग़ल सैनिकों ने ये सोचकर कि हेमु, हुमायूं की कब्र से बदसलूकी करेगा !! हुमायूँ को कब्र से निकालकर सरहिंद ले गए !! इस तरह मरने के बाद भी हुंमायूं को एक जगह ठहरकर विश्राम करने को न मिल सका !!!!
      1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद यहाँ छिपे बहादुर शाह जफर को 17 संबंधियों सहित इसी मकबरे से अंग्रेजों ने बंदी बनाकर मुगल साम्राज्य का सूरज अस्त कर दिया था।  इस मकबरे को यदि दिल्ली का लाल पत्थर से बना ताजमहल कह दिया जाय तो शायद अतिश्योक्ति न होगी !!

" नटराज दही-भल्ला कॅार्नर " : दिल्ली


 
 

" नटराज दही-भल्ला कॅार्नर " : दिल्ली

 
                सैर सपाटे पर निकले हों और खाने –पीने की बात न हो तो कुछ अधूरा सा लगता है !! हालाँकि घर से बाहर खाना मेरे लिए उत्साह का विषय नहीं है लेकिन कटरा नील में, राय चुन्नामल की हवेली से लाल किला की और बढ़ते हुए, भाई मतिदास चौक के पास, , 1940 में स्थापित “ नटराज दही भल्ला कॅार्नर “ सामने दिखें तो लोभ संवरण कर पाना कठिन हो जाता है.
                   इस दुकान के विशेष सौंठ व मेवे युक्त स्वादिष्ट दही भल्ले कई प्रसिद्ध शख्सियतों की यादें संजोये हुए है. आज 50 रुपये में मिलने वाले दही भल्लों ने कई शख्सियतों को इस दुकान का रुख करने को मजबूर किया हर दिल अजीज लाल बहादुर शास्त्री जब ताशकंद गए थे तो अपने साथ यहीं से दही भल्ले पैक करवाकर साथ ले गए थे.जनप्रिय नेता अटल जी भी अक्सर यहाँ दही भल्लों का आनंद लेने आया करते थे. स्टंट किंग अक्षय कुमार जब चांदनी चौक में रहते थे तो अक्सर इस दुकान पर आते थे .
                केवल चांदनी चौक तक ही सीमित न रहकर, “ नटराज के भल्ले “ कई दूसरे देशों में भी निमंत्रण पर जाकर अपनी पाक कला के जादू से विदेशियों को भी सम्मोहित कर चुके हैं ..
 
 

परम्परागत पौष्टिक नाश्ता :चटनी और मक्खन के साथ मंडुवे (कोदा, रागी) की रोटी


 

परम्परागत पौष्टिक नाश्ता

चटनी और मक्खन के साथ  मंडुवे (कोदा, रागी)  की रोटी

            ठण्ड के मौसम में दिन भर घूमने का इरादा हो और चूल्हे के पास बैठकर सुबह-सुबह मक्खन और चटनी के साथ मंडुवे (कोदा, रागी) की दो गर्मागर्म रोटी नाश्ते में मिल जाय !! फिर तो नाश्ते का आनंद कई गुना बढ़ जाता है ! ये पौष्टिक नाश्ता मेरे लिए दिन भर ऊर्जा देने के लिए पर्याप्त ईंधन है..
          कहा जाता हैं इतिहास स्वयं को दोहराता है या यूँ कहिये !! अनुपलब्धता, मानव मन को किसी वस्तु के प्रति अधिक आकर्षित करती है !! पहले इस भोजन को गरीबों का मोटा-सोटा भोजन कहकर दोयम दृष्टि से देखा जाता था. आज उत्तराखंड की शादियों में देखता हूँ पढ़े-लिखे, सूटेड-बूटेड संभ्रांत लोग कोदे की रोटी की लालसा में कतार में खड़े दिखाई देते हैं !! 
          कई रेस्टोरेंट्स के मेन्यु में उत्तराखंड के परम्परागत, बाड़ी, झंगोरा, फाणु, चैंस्वांड़ि पल्यो (छंछेड़ु), गथवाणीं, भट्वाणी, कंडाली साग, धाबड़ी, लेंग्ड़ा, कंकोड़ा आदि पकवानों को स्पेशियल रेसिपी के रूप में शुमार किया जाता है. इन पकवानों को कभी गरीबों का भोजन मानकर पकवानों में दोयम श्रेणी में रखा जाता था !!
             शायद !! शिक्षा के प्रसार व मानव में विश्लेष्णात्मक अभिवृत्ति के विकास ने इन पकवानों की पौष्टिकता से रूबरू कराकर, आधुनिकता की चकाचौंध में इन रसायन व कीटनाशक रहित अनाज से बने पकवानों से विमुख हुए मानव को पकवानों के माध्यम से अपनी स्वस्थ संस्कृति व पर,म्पराओं की ओर आकर्षित करना प्रारंभ कर दिया है !! मैं इसे शुभ संकेत ही कहूँगा .