Sunday 30 August 2015

लाल किला, बार्बिकन : दिल्ली


       

लाल किला, बार्बिकन : दिल्ली

संवारा था हुस्न को तो बहुत दिलो जान से
   कोई नकाब डाल दे ! हुस्न की क्या है खता !!
.. विजय जयाड़ा
           सन 1648 में शाहजहाँ द्वारा उस समय दस करोड़ रुपये की लागत से निर्मित इस किले की बाहरी सुरक्षा दीवारों की लम्बाई 2.5 किमी. है. कुल निर्माण लागत में से आधी धनराशि महलों की आतंरिक सजावट व बागों को बनवाने पर खर्च की गयी थी !! 
           जिस स्थान पर तिरंगा लहरा रहा है इसके ठीक नीचे किले में प्रवेश हेतु मुख्य द्वार लाहौरी दरवाजा है जो बहुत ही कलात्मक तरीके से बनाया गया है, सामने से दरवाजे के कलात्मक सौंदर्य को ढ़कती, नीची दीवार (Barbican) दिखाई दे रही है, (इस पर हरी घास स्पष्ट दिखाई दे रही है) स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री, प्रतिवर्ष इसी प्राचीर (बार्बिकन) से राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं। इसे लाल किला निर्माण के बाद औरंगजेब ने किले की अतिरिक्त सुरक्षा के लिए बनाया था जिससे आक्रमणकारी सीधे मुख्य दरवाजे पर हमला न कर सकें..
        औरंगजेब द्वारा आगरा लाल किले में कैद किये गए स्वयं के पिता शाहजहाँ को इस बार्बिकन के बनने की जानकारी मिलने पर बहुत दुःख हुआ था !!
शाहजहाँ ने आगरा से बेटे औरंगजेब को ख़त लिखा ...” लाहौरी दरवाजे के आगे दीवार (Barbican) बनाकर तुमने अच्छा नहीं किया, तुमने दुल्हन की सुन्दरता को हमेशा के लिए परदे से ढक दिया ! मुझे इसका बहुत दुःख है !! "
 
 

उड्यार (गुफानुमा आकृति)


उड्यार  (गुफानुमा आकृति)


                प्राकृतिक रूप से निर्मित इस गुफानुमा आकृति ( उड्यार ) के अन्दर पानी के साथ रिस कर आये अवक्षेपित खनिजों ने बहुत सुन्दर आकृतियाँ उकेर दी हैं ...
                जंगली जानवरों के छिपने के लिए ये सुरक्षित जगह जान पड़ती है !!
       ये गुफा, ऋषिकेश, लक्ष्मण झूला से लगभग 5 किमी आगे, पटना वाटर फॅाल की तरफ पैदल मार्ग पर जाते हुए मिलती है।


Sunday 23 August 2015

अल्लाई मीनार : क़ुतुब परिसर, दिल्ली


 अल्लाई मीनार : दिल्ली

       ,दिल्ली का इतिहास टटोलने के क्रम में अल्लाई मीनार पहुँच गया. पुरातात्विक मानचित्र पर क़ुतुब कॉम्प्लेक्स के 40 से अधिक पुरातात्विक महत्व के स्मारकों में से एक, क़ुतुब मीनार दिल्ली की पहचान भी है, अधिकतर पर्यटक कुतुबमीनार, लौह स्तम्भ या कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के आस-पास ही दिखाई देते हैं लेकिन चंद कदम दूर एक तरफ शांत खड़े अल्लाई मीनार के अनगढ़ पत्थरों के ढांचे, जो कि अल्लाउद्दीन खिलजी की अति महत्वाकांक्षा को बयां करता जान पड़ता है, की तरफ कम ही लोग रुख करते हैं ! 
           अल्लाउद्दीन, सिकंदर महान की तरह ख्याति अर्जित करना चाहता था. इसलिए उसने सिकंदर-ए-सानी की उपाधि भी धारण की थी ..उसका सम्पूर्ण शासनकाल युद्धों में ही व्यतीत हुआ.
           अल्लाउद्दीन खिलजी दक्षिणी भारत में कई जीत प्राप्त करने वाला पहला मुस्लिम सुलतान था. इन विजयों को चिर स्मरणीय बनाने के उद्देश्य से, कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद को चार गुना बड़ा बना देने के बाद, मस्जिद के आकार से मिलान करती और क़ुतुब मीनार से दो गुना ऊँची मीनार बनाने के अपने विचार को मूर्त रूप देने की ठानी थी. नामुमकिन डिजाइन वाली इस ईमारत का प्रथम तल भी पूर्ण नहीं हो पाया था कि अल्लाउद्दीन की 1316 में अचानक मृत्यु हो गयी इसके उपरांत अयोग्य उत्तराधिकारियों के कारण, स्मारक का निर्माण अंजाम तक न पहुँच सका !!
         अल्लाउद्दीन को बाजार मूल्य व्यवस्था पर कठोर नियंत्रण के लिए जाना जाता है वस्तुओं के कम दामों के बावजूद भी उसके सैनिकों की तनख्वाह (184 टंका वार्षिक), बाद के सुल्तानों के सैनिकों से अधिक थी. तुलनात्मक रूप से कहा जाय तो अल्लाउद्दीन के सैनिक की तनख्वाह अकबर के सैनिकों से 6 रुपये कम और शाहजहाँ के सैनिकों की तनख्वाह से 24 रुपये अधिक थी.. लेकिन अल्लाउद्दीन का समय पहले का होने के कारण सैनिकों की तनख्वाह सबसे अधिक कही जा सकती है .

 

Friday 21 August 2015

जफ़र महल, लाल किला.


जफ़र महल, लाल किला

         बादशाह जफ़र के दौर में शाहजहानाबाद, जिसे अब पुरानी दिल्ली कहा जाता था, की सूर्यास्त होने के बाद हर शाम शेरो-शायरी से लवरेज होती थी जो देर रात तक चलती थी. बादशाह के दरबार में जौक और ग़ालिब का विशेष स्थान था. पैदल सैनिक के पुत्र, जौक साहब को शायरी के कारण ही बागवानी महकमे का सबसे बड़ा पद मिला था.
         ग़ालिब साहब को अपनी चारित्रिक कमजोरियों पर बड़ा गर्व था !! उनको जुआ खेलने पर जेल भी जाना पड़ा था ! एक बार उनकी उपस्थिति में किसी ने शेख साह्बाई की शायरी की तारीफ़ कर दी तो ग़ालिब चीख उठे !!, “ साहबाई ने कभी शराब नहीं चखी !! न ही उसने कभी जुआ खेला !!, प्रेमिकाओं द्वारा वह चप्पलों से भी नही पीटा गया !! और न ही वह एक बार भी जेल गया !! फिर वह शायर कैसे हो गया !! “
        साझा संस्कृति के पोषक व शायरी में जौक के मुरीद, बादशाह बहादुर शाह जफ़र, केवल शौकिया शायर नहीं थे बल्कि शायरी में उनका दिल पनाह लेता था.. 

        इतिहास की लम्बी उदास ग़ज़ल कहे जाने वाले बदनसीब बादशाह जफ़र ने लाल किला परिसर के उत्तर-पूर्व में स्थित “ हयात बख्श “ बाग़ में, 1842 के दौरान, सावन और भादों मंडपों के बीच जलाशय में लाल पत्थर से जफ़र महल के रूप में अपने काल में एकमात्र निर्माण करवाया था. बादशाह जफ़र के दौर में शाम होते ही जफ़र महल में नामी-गिरामी शायरों की महफ़िल सजती थी और बादशाह जफ़र अपनी शायरी सुनाया करते थे. यहीं “ जफ़रनामा ” भी लिखा गया..




Tuesday 18 August 2015

कुछ हल्का-फुल्का !!

कुछ हल्का-फुल्का !!

        व्यस्त यात्रा कार्यक्रम के दौरान, विषय से हटकर कौतुहल से भरे पल मानसिक विश्राम प्रदान करते हैं..
        इसी क्रम में ऋषिकेश-नरेंद्र नगर मार्ग पर ओंणी बैंड के आस-पास,
विकास की राहों को मजबूती देता ये नया-नवेला दीर्घकाय रोड रोलर खड़ा दिखा !! नजीबाबाद निवासी ड्राइवर और सहयोगी दिन भर किये परिश्रम के बाद, पास ही टेंट में प्रकृति के सानिध्य में संध्याकालीन दावत में मस्त हैं !!  मैंने फायदा उठाया ! रोड रोलर पर चढ़कर तस्वीर क्लिक करवाने का लोभ संवरण न कर सका..


Friday 14 August 2015

निर्झर गीत


 

निर्झर गीत

 
अपनी धुन में
अविरल ...
उज्जवल निर्झर
गीत प्रीत के
गुनगुना रहा,

जीवन बहता
पानी सा ...
कभी उन्नत
कभी गहरा सा,
गिरना भी
टकराहट भी,
सम भाव में
क्यों ...
स्वीकार नहीं !!
एक राग में गाता
अविरल निर्झर..
जीवन सार सुना रहा ...
 
... विजय जयाड़ा
 
Lakshman Jhula Rishikesh.

Thursday 13 August 2015

पंध्यारा...धारा ..प्राकृतिक स्रोत


 पंध्यारा...धारा ..प्राकृतिक स्रोत


        सुबह-सुबह ..पंध्यारा...धारा ..प्राकृतिक स्रोत ...पर पानी भरने जाना ..कितना कठिन काम लगता है न..?    पर यह स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है, स्वच्छ पर्यावरण में सम्पूर्ण शरीर का व्यायाम भी हो जाता है  ..         साथ ही सामाजिक समरसता व सहिष्णुता की दृष्टि भी बहुत महत्वपूर्ण है ..   पानी भरने के साथ-साथ, आपस में मनो-विनोद, और कई तरह तरह की बातें हो जाती हैं ! ....तस्वीर में यह आनंद स्वत; ही झलक रहा है ...
अब तो कई जगह,घर पर ही नल आ गए हैं जिससे हम  स्वयं अपने तक ही सिमट कर रह गए !! 


हिम्मते मर्दां मददे खुदा

 

हिम्मते मर्दां मददे खुदा 

               दिल्ली से हेमकुंड साहब के दर्शन के लिए साईकिल से निकले सरदार दर्शन सिंह जी की उम्र व उनकी हिम्मत तो देखिये ...इनके साथ कोई नहीं बिलकुल अकेले हैं आप ....!!
               देवप्रयाग के पास मुलाकात हुई तो जब मैंने इनसे इस जज्बे के खतरे के बारे में बात की तो  मालिक पर भरोसे की बात कह कर मुस्करा दिए ...
            इनके पास न कोई साईकिल पम्प है न पंक्चर ठीक करने का साधन .


                                           उचित ही कहा गया है .... " हिम्मते मर्दां मददे खुदा "

हमारे,तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ कॉमनवेल्थ वीरता पुरस्कार "विक्टोरिया क्रॉस" विजेता

 

हमारे तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ
कॉमनवेल्थ वीरता पुरस्कार "विक्टोरिया क्रॉस" विजेता


             देश की एकता और अखंडता को कायम रखने में,1887 में स्थापित गढ़वाल रायफल का स्वर्णिम इतिहास रहा है ..
            बैनेट युद्ध कौशल में सिद्धहस्त रायफल मैन,गबर सिंह नेगी ने प्रथम विश्व-युद्ध के दौरान फ्रांस में, दुश्मनों की टुकड़ी को आत्म समर्पण करने को मजबूर किया और स्वयं वीर गति को प्राप्त हुए.इसी युद्ध के दौरान नायक दरवान सिंह नेगी ने सिर पर दो स्थानों और हाथ पर घायल होने के बावजूद दुश्मनों की टुकड़ी को गोलियों की बौछारों के बीच पीछे हटने को मजबूर किया.  

           वहीँ लेफ्टिनेंट कैनी ने 1919 -20 में शक्तिशाली महसूद के सेना के आक्रमण से अपनी सेना को सुरक्षित निकालने में वीरगति प्राप्त की... तीनों वीर सपूतों को,तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ कॉमनवेल्थ वीरता पुरूस्कार विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया.गढ़वाल रायफल से विक्टोरिया क्रॉस प्राप्त करने वाले ये प्रथम तीन वीर सपूत थे .

आधुनिकता की भेंट चढ़ती हमारी स्वस्थ परम्पराएँ : रोटाना



        आधुनिकता की भेंट चढ़ती हमारी स्वस्थ परम्पराएँ : रोटाना

                        आज मैं "रोटाना" और उनको बनाने की Computerised मशीन लाया हूँ..
 
         आटे को देशी घी या वनस्पति तेल व गुड़ की चाश्नी में सौफ डालकर अच्छी तरह गूंथकर, नारियल बुरक दीजिए और छोटी-छोटी पेड़ियाँ बनाकर मशीन के बीच में रख कर दबा दीजिये और भूरा होने तक तलिए ..
        लीजिए बन गए "रोटाने".....पुराने समय में क्रय शक्ति भी कम थी और बाज़ार में बनी चीज़ों का परहेज भी किया जाता था ...बाज़ार काफी दूरियों पर होते थे...
       ससुराल से जब बेटियां मायके आती थी तो ससुराल वापसी में काफी पैदल चलना होता था। मार्ग में भूख लगने पर रोट काम आते थे, इसलिए बेटी को विदाई के समय "कलेऊ" के रूप में अन्य चीजों के साथ-साथ रोट भी दिए जाते थे।
       शुद्धता से परिपूर्ण, ये ,स्वास्थ्य अनुकूल परंपरा ,आज समयाभाव की बात कर , आधुनिकता की भेंट चढ़ गई है !! और लगभग समाप्त सी हो गई है !!

Wednesday 12 August 2015

साज


(__ साज __)

कुदरत की 
अठखेलियाँ___ 
सुर निबद्ध 
करता है साज 
सुप्त ह्रदय 
झंकृत कर
जगाता है साज___
कभी आग तो
कभी पानी 
बरसाता है साज
दिलों को
धड़काता और
मिलाता है साज___
बंद लबों को
बुदबुदाता है साज
कभी गुनगुनाते 
लबों को
मौन करता है साज___ 
रौद्र होता 
तो कभी 
शालीन हो जाता साज
कभी रणभेरी 
तो कभी 
मृदुल धुन
सुनाता है साज___
कभी मिलन है 
तो कभी 
विरह है साज
कभी दिन है 
तो कभी 
रात है साज___
माँ की लोरी,
दादी की 
कहानी है साज 
कभी कोयल 
तो नदिया 
बन जाता है साज___
ताउम्र सरगम
सुनाता है साज
कभी ऊँचे
कभी नीचे मध्यम
स्वर सुनाता है साज___
बुजुर्गों की 
लाठी___
बनता है साज
कभी बुजुर्गो का
आशीर्वाद___
बन जाता है साज__ 
हँसाता रुलाता
दोनो ही साज,
गुदगुदाता बहलाता 
नचाता है साज___
संवेदनाओं का सुर,
संस्कृति का
दर्पण है साज,
कुदरत को 
सरगम में__
सजाता है साज__
जीवन से पहले
बाद में भी साज
धरती की गहराई
अनंत ऊंचाइयों में साज ___
.....विजय जयाड़ा 21.02.15


तैमूर लंग के आक्रमण का मूक गवाह भरत मंदिर, ऋषिकेश



तैमूर लंग के आक्रमण का मूक गवाह 

भरत मंदिर, ऋषिकेश


         दिल्ली में जिनका भी राज रहा, उत्तराखंड उनके द्वारा किये गए आक्रमण से अछूता नहीं रहा. पहले अशोक के बौद्ध धर्म प्रसार, फिर चौहान, तुगलक वंश, तैमूर लंग, सैय्यद वंश, मुग़ल वंश गोरखा, उत्तराखंड पर आक्रमण करते रहे और यहाँ के सामाजिक ताने-बाने, कृषि और अर्थ व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट करते रहे. प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से इन आक्रमणों का उद्देश्य, धर्म व सीमा विस्तार, सोना, कस्तूरी व धन प्राप्ति की कामना होता था। इस क्रम में मोहम्मद बिन तुगलक द्वारा 1337 और तैमुर लंग द्वारा दिल्ली में लूटपाट करने के बाद समरकंद वापस जाते हुए 1399 में किये गए हमलों ने उत्तराखंड में शिवालिक की तराई की उपजाऊ खेती और मानव जीवन को नष्ट प्राय ही कर दिया था..
       मूर्ती विरोधी तैमूर लंग ने हरिद्वार, ऋषिकेश क्षेत्र में मार-काट और लूट-पाट मचाने के अलावा मंदिरों को भी क्षति पहुंचाई.ऋषिकेश शहर के ह्रदय भाग में स्थित सबसे प्राचीन भरत मंदिर की दीवारों के निचले भाग पर बनी प्राचीन प्रस्तर मूर्तियों के प्रहारों से विदीर्ण मुखांग आज भी तैमूर की बर्बरता के गवाह हैं. इसे आप मंदिर के पिछले भाग की तरफ जाकर देख सकते हैं. मंदिर के संग्रहालय में दूसरी शताब्दी से 14 वीं शताब्दी तक की मूर्तियाँ , कलात्मक ईंटें, और मिटटी के बर्तन भी संग्रहित हैं ..मेरे द्वारा ली गयी सम्बंधित तस्वीरे नीचे कमेन्ट बॉक्स में अवश्य देखिएगा ..
       जन श्रुतियों के अनुसार पटेश्वरी गाँव में धमान सिंह, भड़ (स्थानीय योद्धा), भरत जी के समर्पित भक्त थे., जब तैमूर के सेनापति ने भरत मंदिर पर हमला किया तो भरत जी ने धमान सिंह, भड़ के सपने में आकर, धमान सिंह को तैमूर के सैनिकों से मुकाबला करने का आह्वन किया. धमान सिंह ने प्रतिज्ञा की, कि वो सेनापति की बायीं मूंछ काटकर इसका बदला लेगा. भयंकर युद्ध हुआ. धमान सिंह वीरता से लड़ा.. अपने वचन के अनुसार सेनापति की बायीं मूंछ काटने में भी सफल हुआ लेकिन चारों ओर से घिर जाने के कारण वीरगति को प्राप्त हुआ .. 
         अपने पुत्र की मौत पर धमान सिंह की माँ इतनी व्यथित हुई कि उन्होंने अपने कुल में पुन: कभी भड़ पैदा न होने का शाप दे डाला... धमान सिंह तो वीर गति को प्राप्त हुए लेकिन आज उस पूरे क्षेत्र के लोग , पट्टी-धमान सिंह, का निवासी होने पर गौरव अनुभव करते हैं 


Monday 10 August 2015

भरत मंदिर, ऋषिकेश,पाताल महादेव, शिवलिंग


 

भरत मंदिर, ऋषिकेश,पाताल महादेव, शिवलिंग


           सम्राट अशोक के कालखंड में बौध धर्म के उत्कर्ष के समय हिमालय क्षेत्र भी इस धर्म से अछूता न रहा. ऋषिकेश और आस-पास के मंदिर बौद्ध मठों में तब्दील कर दिए गए. विष्णुपुराण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, वामन पुराण व नरसिंह पुराण में वर्णित, भरत मंदिर भी बौद्ध मठ में तब्दील हो गया. 
        सन 789 में जगद गुरु आदि शंकराचार्य जी द्वारा भरत मंदिर के जीर्णोद्धार के उपरान्त ऋषिकेश शहर अस्तित्व में आया. इस तरह, भरत मंदिर, मंदिरों के शहर, ऋषिकेश का सबसे पुराना मंदिर है. महापंडित राहुल सांकृत्यायन ऋषिकेश कई बार आये उन्होंने अपनी पुस्तक “ हिमालय परिचय” में भरत मन्दिर का वर्णन किया है उनके अनुसार तब ऋषिकेश पांच-दस परिवारों से आबाद जगह थी. 
 


            मुझे लगता है तस्वीर में वर्तमान उत्खनन के उपरांत भरत मंदिर की सतह से करीब 14-15 फीट नीचे प्राप्त ये भूमिगत प्राचीन शिवलिंग संभवत: उसी काल का होगा तब इसके आस-पास ग्रंथों में वर्णित पौराणिक मंदिर रहा होगा जो प्राकृतिक व मानवीय आपदाओं को झेलता हुआ जमीन के काफी नीचे दब गया होगा या दबा दिया गया होगा.
           पर्यटक व यात्री भरत मंदिर आते हैं भरत जी महाराज के दर्शन कर लौट जाते हैं लेकिन मुख्य मंदिर परिदृश्य से हटकर स्थित इस पौराणिक भूमिगत शिवलिंग पर उनका ध्यान नहीं जाता. 
           यदि आप भरत मंदिर जाइयेगा तो शिवलिंग के दर्शन कर उस काल खंड में अवश्य खो जायेंगे जब द्रौपदी समेत पांडवों ने स्वर्गारोहणी के दौरान इस शिवलिंग के दर्शन किये होंगे.  28.02.15

अनहद


\\ अनहद //
---------- 

महानगर के
कंक्रीट वन में
घिर कर दम
घुटता है जब
झूमते मुस्कराते
सुकुमार हरित वन
अपने पास
खींच लाते हैं तब
सहज स्पंदित
होता है जीवन
निर्झर निरंतर
   स्नेह से ...
चहचहाते
पक्षियों का कलरव
  तब करता है ..
    जीवन संगीतमय.... 

.. विजय जयाड़ा 29.03.15

प्रथम विश्व युद्ध कालीन तोप : नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल



प्रथम विश्व युद्ध कालीन तोप : नरेन्द्र नगर, टिहरी गढ़वाल

        
          ऋषिकेश से से 15 किमी. आगे गंगोत्री मार्ग पर ऊँचाई में बसे नरेन्द्र नगर में महाराजा के महल, अब होटल आनंदा, के प्रवेश द्वार पर रखी इस तोप को देखा तो इस पर बैठकर तस्वीर लेने का लोभ संवरण न कर सका. ये तोप अन्य किलों में रखी गयी तोपों के मुकाबले कुछ आधुनिक लगी !! 
        पहले इसे परेड ग्राउंड में रखा जाता था. 1919 में टिहरी रियासत के महाराजा नरेन्द्र शाह ने राजधानी को टिहरी से स्थानांतरित कर नरेन्द्र नगर, तत्कालीन नाम ओडाथली, को राजधानी बनाया.     यह स्थान तत्कालीन परिस्थितियों में निचले मैदानी क्षेत्र की तरफ से आक्रमण के समय रियासत की सुरक्षा के लिए सामरिक दृष्टि से ऊँचाई पर स्थित बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था. 
        शिवालिक पर्वत श्रृंखला के चरणों में बसे, प्राकृतिक छटा से भरपूर, नरेन्द्र नगर का ऐतिहासिक महत्व भी है ऋषि उद्धव ने इस स्थान पर कठिन तपस्या की थी तथा ज्योतिष शास्त्र के जनक पुरस्र ने नरेन्द्र नगर में ही ग्रहों और तारों की गति पर कई अनुसन्धान किये थे, उनकी वेधशाला आज राजकीय पॉलीटेक्निक में परिवर्तित हो चुकी है... इस महल में लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी, माँ आनंदमयी, स्वामी शिवानन्द , लार्ड माउंटबेटन जैसे लोग आ चुके हैं
            ये तोप टिहरी रियासत पर तैमूर रंग , तुगलक व मुगलों द्वारा किये गए आक्रमण के काफी बाद प्रथम विश्व युद्ध के समय की निर्मित  तोप है.मुझे नहीं लगता इसका प्रयोग महाराजा व वॅायसराय को सलामी देने के अतिरिक्त किसी युद्ध में हुआ हो !! 

        इससे पहले इससे मिलती जुलती ,लेकिन विश्व की सबसे बड़ी तोप जयगढ़ दुर्ग,जयपुर ,राजस्थान में देखी थी।

स्पंदन : प्रकृति और अंधविश्वास

 

स्पंदन : प्रकृति और अंधविश्वास 


          यात्रा क्रम में एक पनियल स्थान पर
ड्रैगन फ्लाई उड़ते दिखे तो कौतुक जगा चलिए आज इस पर ही चर्चा हो जाय ! पानी वाले स्थानों पर आसानी से दिखाई देने वाले, ड्रैगन फ्लाई के जीवाश्मों से अनुमान लगाया गया है कि लाखों साल पहले ड्रैगन फ्लाई पूर्वजों के पंख 75 सेमी. तक बड़े होते थे !!
        किसी कालखंड में घटित शुभ-अशुभ घटनाओं के आधार पर हम सम्बंधित जड़-चेतन को ही स्वयं के लिए शुभ-अशुभ मानने लगते हैं ! देश-काल-परिस्थितियों को आधार बनाकर, तथ्यपरक व वैज्ञानिक विश्लेषण के अभाव में, कालांतर में वे मिथक संस्कृति में रच-बसकर अंधविश्वास का रूप ले लेते हैं !
                        
 
अब ड्रैगन फ्लाई को ही देख लीजिये ! जापान में इसे “ साहस-शक्ति और प्रसन्नता “ का प्रतीक मान कर “ शुभ “ जाता है जबकि यूरोप में इसे अभिशाप के रूप में “अशुभ “ माना जाता है !! इंडोनेशिया में इसे भोज्य सामग्री के रूप में इस्तेमाल किया जाता है वहीँ चीन और जापान में देशी पारंपरिक दवाइयों में इस्तेमाल भी किया जाता है ! और भारत में !! बच्चे इसके पैरों से धागा बाँधकर उड़ते हुए देखने का आनंद लेते हैं !!
साथियों, प्रकृति का हर सृजन संतुलन बनाये रखने के लिए आवश्यक है लेकिन कमोवेश अज्ञानतावश व स्वार्थवश, हम अपनी सुविधा के अनुसार ही जड़-चेतन की उपयोगिता को परिभाषित करने की कुचेष्टा करते हैं ! जब हम उनकी उपयोगिता से रूबरू होते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है ..
...और फिर पर्यावरण मंत्रालय व मीडिया के वातानुकूलित कक्षों में आमंत्रित की जाती हैं विचारगोष्ठियाँ !! और कागजों पर चलाये जाते हैं....खर्चीले.. “ संरक्षण “ अभियान !!!



Friday 7 August 2015

यूँ तो सफर पर



यूँ तो सफर पर 


यूँ तो सफर पर 
चलते हैं लाखों,
मगर मंजिल पर
पहुँचते हैं कुछ ही !
अहल-ए-ज़माने !!

कद्र कर उनकी भी,
मंजिल तक खुद
जो पहुँच नहीं पाते,
       मगर___
हमसफ़र का
हौसला वो बढ़ाते हैं.
 
.. विजय जयाड़ा


महादेव सैण महादेव, फूल चट्टी, ऋषिकेश

 

 महादेव सैण महादेव, फूल चट्टी, ऋषिकेश


          उत्तराखंड में आदि शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित शिवालयों के स्थापत्य के अनुरूप प्राचीन शिवालय प्राय: हर गाँव में आसानी से मिल जाता है. हिन्दू धर्म पुनर्स्थापना के कालखंड में उत्तराखंड, आदि शंकराचार्य जी की कर्म स्थली रही है. कहा जाता है श्रीनगर में कीर्तिनगर पुल के पास आदि शंकराचार्य जी हैजा से ग्रस्त थे तो उनको दूध बेचने वाली के स्वरुप में माँ गंगा के दर्शन हुए थे. इस प्रसंग को विस्मृत कर रहा हूँ, निवेदन है कि यदि किसी सम्मानित साथी को प्रसंग ज्ञात हो तो उल्लेख अवश्य कीजियेगा.
       सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र उत्तराखंड शिव निवास माना जाता है. उत्तराखंड के प्राचीन शिवालय प्राय: आधुनिक वैभव से दूर हैं इन शिवालयों के परिधि क्षेत्र में पहुँचते ही वहां के वातावरण व वास्तु के कारण अपार आत्मिक शांति का स्वमेव अहसास होता है और मुझ जैसा व्यक्ति जो वैभव प्रदर्शित करते मंदिरों की तरफ कम ही रुख करता है अनायास खींचा चला जाता है.
        हिन्यूल नदी के तट पर चारों ओर आम, पीपल आदि के वृक्षों की हरीतिमा की छाँव में शांत-एकांत में यह प्राचीन शिवालय, महादेव सैण में है. यहाँ अलौकिकता का अहसास होता है. ऐसा प्रतीत होता है मानों प्रकृति के सभी अवयव मिलकर शिवालय को सुन्दर अलौकिक स्वरुप देने की आपसी होड़ में है !!
         प्राचीन शिवालयों के सानिध्य में भावनात्मक सुखानुभूति होती है। फूल चट्टी धर्मशाला के अवशेषों के अध्ययन के बाद जिज्ञासा शांत होने पर समीप में ही स्थित प्राचीन शिवालय का रुख किया. दरवाजे बंद थे ! स्वयं ही द्वार खोलकर सर्वशक्तिमान भोले के दर्शन कर उनकी शक्ति के आगे नतमस्तक हो, आशीर्वाद प्राप्त कर, वापस ऋषिकेश के लिए प्रस्थान किया..
         सोचता हूँ आधुनिकता के साथ प्राचीन मन्दिरों के मूल स्वरूप को भी यथावत् संरक्षित रखा जाय तो मन्दिर परिसर में प्राचीनता बोध व धार्मिक भावना के साथ-साथ सांस्कृतिक रूप से भी भावनात्मक लगाव उत्पन्न होगा .. 06.08.15


Wednesday 5 August 2015

आक्रोश का चश्मदीद गवाह ;भारतीय स्टेट बैंक, चांदनी चौक

आक्रोश का चश्मदीद गवाह 

भारतीय स्टेट बैंक, चांदनी चौक


            जब आप लालकिला की तरफ से चांदनी चौक मुख्य सड़क पर चलेंगे तो दायें हाथ की तरफ पीले रंग के चार मंजिला ऊंची भव्य इमारत पर आपकी दृष्टि अवश्य रुकेगी. आज भी शान से खड़ी ये इमारत स्वयं में अतीत की बहुत सी अच्छी व बुरी यादें संजोये हुए है !!
          इस भवन में कभी अंग्रेजों की अदालत हुआ करती थी.1847 में दिल्ली बैंक ने इस भवन को खरीद लिया. !857 में जब यहाँ प्रथम स्वाधीनता संग्राम नेतृत्व के अभाव में कमोवेश लूटमार और बलवे के रूप में परिवर्तित हो बेकाबू हो गया था। तब उस स्थिति का फायदा उठाने के लिए आस पास के प्रदेशों के कुछ शरारती लोग यहां आकर लूटपाट करने लगे थे !! उसी काल खंड में कुछ आक्रोशित स्वाधीनता सेनानियों ने इस स्थान पर इस बैंक के मैनेजर को पत्नी व पांच पुत्रियों समेत क़त्ल कर दिया था.
         बाद में भारतीय स्टेट बैक के पूर्वाधिकारी इम्पीरियल बैंक ने इस इमारत को अपने अधिकार में ले लिया . कुछ वर्षों तक भारतीय रिजर्व बैंक इसी इमारत में काम करता रहा, इसके दालान मे पुराने और खराब नोटों को जलाने वाली पुरानी भट्टी व चिमनी आज भी उसकी मूक गवाह हैं ।
                 इस इमारत के जीने, छतें, मेहराबदार दरवाजे, पुरानी अंग्रेजी लिफ्ट, चटकीले शीशे आज भी यूरोपीय वास्तुकला को प्रदर्शित करते है


मन की बात

मन की बात

        अब तक दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, हरियाणा व उत्तराखंड के विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों को गहनता से देख चुका हूँ ..
         जहाँ भी जाता हूँ ऐतिहासिक स्थल का विभिन्न स्रोतों से प्राप्त अधिकतम जानकारी के आधार पर पूर्वाग्रहरहित विश्लेषण करने का प्रयास करता हूँ. फेसबुक जैसे सार्वजनिक मंच पर जितना कहना उचित है उतना साझा करने का प्रयास करता हूँ. कुछ तथ्य सार्वजनिक मंच पर कहना उचित नहीं समझता क्योंकि बड़े-बड़े इतिहासकारों में भी उन तथ्यों पर मतभेद है. इसलिए उन्हें व्यक्तिगत चर्चा तक ही सीमित रखता हूँ..
       बहरहाल, आज किसी विशेष विषय पर पोस्ट केन्द्रित न कर इन ऐतिहासिक स्थलों को देखकर मन में उठे भावों को साझा करने की दिली इच्छा के तहत ये कहना चाहूँगा कि विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत पर अधिकार करने के लिए “ तलवार और तरकीब (राजनीति) “ का सहारा लिया.जहाँ उनकी तलवार को चुनौती मिली, उन्होंने वहां धन, मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करने की ललक व नारी सौन्दर्य के प्रति आकर्षण के मानव सुलभ तामसी गुणों को प्रलोभन के तौर पर विनाशक हथियार के रूप में प्रयोग किया !!
                    फिर किसी जेरा भाई की संतान साबौर भाई .. हज़ार दीनार में बिककर, आक्रान्ताओं के पद-प्रतिष्ठा के लोभ में अपनी   ही मातृभूमि को मालिक काफूर बनकर रौंदने न निकल पड़े. फिर कोई राजीव लोचन राय आक्रान्ताओं की सुन्दरता के मोह-पाश में बंधकर, धर्म बदलकर काला पत्थर नाम में रख कर कोणार्क के सूर्यमंदिर के आधार चुम्बकीय   “ दधिनौती ”    शिला    ( इस शिला पर मंदिर की दीवारों का सामंजस्य केन्द्रित था और    इसका चुम्बकीय प्रभाव इतना प्रबल था कि आस-पास गुजरने वाले पानी के जहाजों का दिशा नियंत्रक काम करना बंद कर देता था जिससे जहाज दिग्भ्रमित हो जाते थे) को उखाड़ कर खंडहर में तब्दील कर अपने ही श्रद्धा स्थलों को कुचलने का प्रयास न करे फिर कोई मानसिंह, मान-प्रतिष्ठा के चलते मातृभूमि के स्वाभिमान के संरक्षक राणा प्रताप जैसे सूरमाओं को घास की रोटी खाने को विवश न कर दे .. फिर कोई दुल्हे राव जैसे संपोले, झाँसी के दुर्भेद किले पर विदेशियों के प्रवेश के लिए किले का द्वार खोल लक्ष्मी बाई की हमशक्ल झलकारी बाई को बलिदान और वीरांगना लक्ष्मी बाई को किले से निकलने को मजबूर न कर दे !!... ये चंद उदाहरण विचारणीय विषय हैं..
       हम विदेशी आक्रमणकारियों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए मन-क्रम-वचन से एक जुट हो.. इसके लिए महाभारत जैसे भयंकर बहराइच के यद्ध, 1033 का अनुसरण करें जहाँ अफगानिस्तान के सालार मसूद की 11 लाख सैनिकों की विशाल सेना को सत्रह स्वदेशी देशभक्त राजाओं ने सुहेल देव के नेतृत्व में लड़कर गाजर-मूली की तरह काट फेंका. ..
       किसी क्षेत्र में कमजोर या साधनहीनता की स्थिति में हम चकमौर के युद्ध 22.09.1704 से साहस व देशभक्ति की प्रेरणा ले सकते हैं.. जहाँ महाराजा गोविन्द सिंह जी ने मात्र चालीस सिख साथियों के साथ मिलकर मुगलों के लाखों की तादात में सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए ..
       विभिन्न विचारधाराओं के बीच मतभेद अवश्य हो सकते हैं मातृभूमि की कीमत पर मतभेदों को मनभेदों में बदलना उचित नहीं !! मातृभूमि के दुश्मनों के विरुद्ध हमें हर तरह के व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्वाग्रह व संकीर्णता त्यागकर एक ही मंच पर मजबूती से खड़ा होना अति आवश्यक है.. इतिहास हमें शोकसागर में डूबे रहना नहीं सिखाता बल्कि विगत घटनाओं से सीख लेकर आगे बढ़ने को प्रेरित करता है ... 


मेरी यात्रा डायरी के सूत्रधार



मेरी यात्रा डायरी के सूत्रधार

          यात्रा डायरी के जो पृष्ठ, मैं आपके सम्मुख प्रस्तुत करता हूँ उनमें संकलित जानकारियों में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से कई साथियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है. यात्रा में जिनसे भी मुलाकात होती है उनके अनुकूल ही बौद्धिक स्तर व परिवेश में उतरने का प्रयास करता हूँ जिससे संवाद सहजता बनी रहे. सर्वप्रथम आत्मीयता बनाना बहुत आवश्यक है. धीरे-धीरे सहज, मिलन सार व आत्मीय स्वभावी स्थानीय निवासी एकत्र होने लगते हैं ! और फिर प्रारंभ होता है खुलकर बातचीत का सिलसिला !! और मुझे कई अबूझ व अलिखित तथ्य आसानी से मिल जाते हैं !!
         ये तस्वीर ऋषिकेश से लगभग 5 किमी आगे, फूल चट्टी पर एक परचून दूकान पर स्थानीय निवासियों से बातचीत के क्रम की है. स्थानीय निवासी पंडित श्री शिव प्रसाद कपरवाण जी 1972-23 के सामाजिक परिवेश का दृश्य चित्र, संवाद में उकेरते हुए बताते हैं कि हमु उस समय बच्चे थे, तब व्यवहार में पैसे का बहुत अभाव था. चार धाम पैदल यात्रा के समय हम 25 – 50 पैसे में सन्यासियों की गठरी ख़ुशी-ख़ुशी, आठ-दस किमी. तक पहुंचा आते थे !!
        साथ ही क्षेत्र के महत्वपूर्ण स्थलों के सम्बन्ध में स्थानीय निवासियों की अनभिज्ञता पर चिंता व्यक्त करते हुए 
व अपराध बोध स्वीकारते हुए बताया कि “ एक दिल्ली निवासी ने मुझसे मेरा निवास पूछा तो मैंने लापरवाही से प्रसिद्ध नीलकंठ क्षेत्र बता दिया.क्योंकि नीलकंठ मंदिर से अधिकतर लोग परिचित हैं . लेकिन जब दिल्ली निवासी ने नीलकंठ मंदिर और आस-पास की जगह की गूढ़ जानकारियां साझा करनी शुरू की तो मैं अवाक रह गया !! क्योंकि मुझे भी नीलकंठ की उतनी जानकारी न थी !! “
     पंडित कपरवाण जी से मुझे ऋषिकेश से देवप्रयाग तक की  " चट्टियों " की महत्वपूर्ण जानकारी भी मिली .. धन्यवाद पंडित कपरवाण जी , ईश्वर ने चाहा तो पुन: भेंट होगी !!   
        हमारा सौभाग्य है और हमें गर्व है कि देवभूमि उत्तराखंड हमारी जन्म भूमि है लेकिन साथ ही सोचता हूँ कि.. देवभूमि की संस्कृति, इतिहास व भूगोल से वाकिफ होना भी बहुत आवश्यक है, जिससे हम अगली पीढ़ी में अपनी स्वस्थ संस्कृति व परम्पराओं को संस्कार रूप में पहुंचा सकें.
  05.08.15


Tuesday 4 August 2015

मेरे रेडियो प्रसारित कार्यक्रम : हुमायूँ का मकबरा



  हुमायूँ का मकबरा

कुछ समय पूर्व मैंने.. इतिहास के झरोखे से दिल्ली ..श्रृंखला के अंतर्गत " हुमायूँ के मकबरे " पर एक पोस्ट की थी
                                                            'ता उम्र भटका वो दर-बदर,
                                                           सितमगर को सुकून न मिला !!
                                                              मिला सुकून ताबूत में. मगर
                                                           पहरे पर सितमगर ही मिला !!.

                                                                   .'विजय जयाड़ा
ये पोस्ट एक रेडियों कार्यक्रम के रूप में SBS रेडियों ऑस्ट्रेलिया पर 25 जून को प्रसारित हुआ प्रवास पर होने के कारण इसकी सूचना आपको न दे सका .भला ये कैसे हो सकता है कि आपको ये जानकारी न दूँ !!.अब तक ऐसे ही चार कार्यक्रम प्रसारित हो चुके है ...
___ लिंक पर या तस्वीर पर क्लिक कर आप इस कार्यक्रम को सुन सकते हैं . अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजियेगा __
कार्यक्रम प्रस्तोता ,सम्मानिता Kumud Merani जी, द्वारा शानदार अंदाज में प्रस्तुत इस कार्यक्रम में मेरा साक्षात्कार भी प्रसारित किया गया.. साथ ही मेरे द्वारा ही तस्वीरें व आलेख सृजन भी है .. 






                                                   

Monday 3 August 2015

मौन खड़ा अतीत !! उत्खनन स्थल वीरभद्र, ऋषिकेश

    
मौन खड़ा अतीत !!
 उत्खनन स्थल वीरभद्र, ऋषिकेश



           इससे पूर्व मैंने इस कुषाण काल, गुप्तकाल व उत्तर गुप्तकाल के अवशेषों को संजोये, वीरभद्र क्षेत्र, ऋषिकेश के पास इस उत्खनित स्थल की जानकारी दी थी. आजकल शिव मास, सावन में चारों ओर वातावरण शिवमय हो गया है ।
           इस स्थान पर बैठा कल्पना लोक में विचरण करता हुआ सोच रहा हूँ कि कभी 2000 साल साल पहले आबाद हुए और 1200 वर्ष पूर्व अज्ञात कारणों से लुप्त सभ्यता व संस्कृति के इस शैव महानगर क्षेत्र के अंतर्गत इस स्थल पर भी सावन में उत्सव का माहौल रहता रहा होगा ! चारों तरह, बोल बम.. हर हर महादेव के गगनभेदी जयकारे लगते रहे होंगे !! स्थल पर ही वर्तमान में विद्यमान हवन कुंड में यज्ञ आहुतियाँ दी जाती रही होंगी !! उस काल में यहाँ शिवलिंग का जलाभिषेक करने के लिए शिवभक्तों का उत्साह देखते ही बनता रहा होगा !!
          लेकिन आज वही शिवलिंग वियावान में है !! भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीन, इस स्थल पर कोई धार्मिक गतिविधि नहीं है. इतिहास भी मानो जमींदोज हो गया !!
          इस स्थल से 100 मीटर की दूरी पर लगभग 1300 वर्ष पुराना वीरभद्र महादेव का मंदिर जो की पौराणिक अवशेषों के ऊपर बना है, वहां आज भी सावन में शिवभक्तों का तांता लगा रहता है !!
सोचता हूँ !! यदि इस क्षेत्र की 2000 वर्ष पुरानी सभ्यता व संस्कृति अज्ञात कारणों से लुप्त न हुई होती तो उत्खनित स्थल का महत्व बरक़रार रहता !! श्रद्धालुओं को इस शिवलिंग में साक्षात शिव अनुभूत होते !! यह स्थान भक्तिमय व भव्यता लिए होता !!
         आज भी ये धरोहर, 2000 वर्षों के अतीत की खट्टी- मीठी यादों को संजोये खुले असमान के नीचे, मौन है !! स्थिर है !!
         साहिर लुधियानवी साहब के गीत की पंक्तियां..
                                         "अब कोई गुलशन ना उजड़े अब वतन आज़ाद है
                                                रूह गंगा की हिमालय का बदन आज़ाद है "

     .........बरबस ही होठों पर आ गई !! अंधेरा घिरने के साथ ही इस धरोहर से रुखसत ली और समीप ही स्थित पौराणिक वीरभद्र मन्दिर की तरफ रुख किया।  
03.08.15