Tuesday 8 December 2015
Forest Research Institute(FRI) Dehradun
Forest Research Institute(FRI) Dehradun
Established as Imperial Forest Research Institute in 1906, Forest Research Institute(FRI) Dehradun is a premier institution under the Indian Council of Forestry Research and Education (ICFRE). Set in the sylvan surroundings of Doon Valley, the Forest Research Institute is a proud testimony to the foresight and vision of foresters and administrators of long ago.कालू ...
कालू
यह तस्वीर लगभग दो वर्ष पुरानी है तस्वीर में ,मंदिर दर्शन की समयावधि में, वर्षा के बावजूद भी ,निरंतर,मेरे साथ रहा " कालू " है.साथियों, इसे सामान्य, कालू समझने की भूल मत कीजियेगा . इसकी विशेषता यह है कि ये जिस दर्शनार्थी के साथ सड़क से नीचे मंदिर तक जाता है उसी के साथ वापस पुन: चढ़ाई चढ़कर वापस सड़क तक आता है.और विदा करता है ! जिन साथियों ने मंदिर दर्शन किये हों उनको अंदाज़ होगा कि चढ़ाई कितनी खड़ी है !!इस दौरान चाहे कितनी भी भीड़ हो "कालू " यदि आपके साथ हो लिया तो हो लिया ... जब आप इस स्थान पर जाए तो " कालू " से अवश्य मिलिएगा
एक जानवर के मन में अजनबी श्रधालुओं के प्रति इतनी आत्मीयता !!!.आश्चर्य हुआ .!!
अहसास
जीव- जंतु ,पेड़-पौधे, नदियाँ और पहाड़ आदि प्रकृति की अप्रतिम कृतियां है, जो संतुलन बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं. जब भी हम इस संतुलन में दखल देते हैं तो समय-समय पर अलग-अलग तरह के भयावह परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं !! प्रकृति की कृतियों के करीब पहुंचकर उनकी क्रियाओं का भावनात्मक रूप से अवलोकन अद्भुत आत्मिक आनंद प्रदान करता है. आत्मिक शांति प्रदान करता है ..
विश्व की सबसे बड़ी तोप : " जय बाण " :जयगढ़ दुर्ग, जयपुर
विश्व की सबसे बड़ी तोप : " जय बाण " :जयगढ़ दुर्ग, जयपुर
जरूरी नहीं कि जंग में
हर तलवार चले,
खामोश रहती हैं कुछ तलवारें
खौफ बनाने के लिए.
हर तलवार चले,
खामोश रहती हैं कुछ तलवारें
खौफ बनाने के लिए.
हर किले और पुरातत्व संग्राहलय के प्रवेशद्वार पर स्थित तोप के साथ तस्वीर लेने का लोभ संवरण शायद ही कोई कर पाता हो !! लेकिन अरावली पहाड़ियों पर स्थित जयगढ़ किले में संवाई जय सिंह द्वितीय के समय 1720 में निर्मित 50 टन वजनी, पहिया चालित, गिनीज बुक में दर्ज, दुनिया की सबसे बड़ी तोप “जय बाण” कई मायनों में अद्वितीय है.
1720 में जब इस तोप का परीक्षण हुआ था तो मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह भी उपस्थित था. कहा जाता है की इसकी मारक क्षमता 40 किमी तक थी तोप से परीक्षण के समय दागा गया 50 किलो वजनी गोला चाकसू में फटा, उस स्थान पर आज भी तालाब देखा जा सकता है ..
तोप को अत्यधिक वजनी होने के बावजूद भी, चार हाथियों के माध्यम से 360 अंश तक घुमाया जा सकता था.लेकिन ये तोप केवल परीक्षण पर ही उपयोग की जा सकी, मुगलों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध होने के कारण इसका दुबारा कभी उपयोग नही हुआ. संग्रहालय में इसका 50किलो वजनी गोला आज भी संरक्षित है दशहरे के दिन इस तोप का परम्परानुसार पूजन होता है.
नाहरगढ़ दुर्ग , जयपुर
नाहरगढ़, दुर्ग, जयपुर
यह नाहरगढ़ किले की छत है.नाहरगढ़ किले को अरावली पर्वत श्रृंखला के छोर पर आमेर की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए सवाई राजा जयसिंह द्वितीय ने सन १७३४ में बनवाया था.किंवदंती है कि नाहर सिंह नाम के राजपूत की प्रेतात्मा यहाँ भटका करती थी. किले के निर्माण में व्यवधान करती थी. अतः तांत्रिकों से सलाह ली गयी और उस किले को उस प्रेतात्मा के नाम पर नाहरगढ़ रखने से प्रेतबाधा दूर हो गयी थी. मेरे ठीक पीछे बाएं हाथ की तरफ वाले कोने में नाहर सिंह को प्रतिष्ठित भी किया गया है ..१९ वीं शताब्दी में सवाई राम सिंह और सवाई माधो सिंह के द्वारा भी किले के अन्दर भवनों का निर्माण कराया गया था इस किले के अन्दर कमरों का वास्तु आधुनिक वास्तुकला से मिलता जुलता है ..यहाँ से सूर्यास्त का बहुत ही मनोरम दृश्य दिखाई देता है. जयपुर जाइए तो यहाँ से जयपुर शहर के विहंगम दृश्य का आनंद लेना न भूलियेगा ..
बरनाला के स्तम्भ शिलालेख (तीसरी शताब्दी ई.)
बरनाला के स्तम्भ शिलालेख (तीसरी शताब्दी ई.)
पुराने समय में शिक्षा के साधन सीमित और हर किसी की पहुँच में नही थे. ग्रंथों के लेखन हेतु भोजपत्र जैसी सामग्री का प्रयोग किया जाता था. छपाई तकनीक का अभाव व अशिक्षा के कारण ये ग्रन्थ सामान्य नागरिक की पहुँच से बाहर थे. समाज में समृद्ध संस्कार और संस्कृति का पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण होता रहे इस उद्देश्य से शिलापट व शिला स्तम्भ लेखन को प्रश्रय मिला.यह प्रयास जन सामान्य हेतु आसानी से सुलभ व स्थायी रूप से जानकारी साधन के रूप में प्रचलित हुआ तस्वीर में शिला स्तंभों में संस्कृत व पाली भाषा में एक स्तूप पर यज्ञ की तारीख संवत 284 (227ईसा सन) अंकित है इसमें सौहत्तर गौत्रीय (यश) राजा के बेटे वर्धन द्वारा किए गए यज्ञ का उल्लेख है .
दूसरे स्तूप में यज्ञ की तारीख विक्रम संवत 335 (278 ईसा सन) अंकित है जिसमे तीन रातों 5 यज्ञों के दौरान राजा भट्ट द्वारा विष्णु भगवान् की आराधना में 90 गायों मय बछड़ों समेत दान का उल्लेख है .. इन तम्भों को पास के गाँव बरनाला से लाकर याहन आमेर के किले में पर्यटकों की जानकारी हेतु स्थापित किया गया है ..
यह सभी पुस्तकों में भी वर्णित है लेकिन उसे पढने की रूचि शायद अधिक लोगों में नही !! कारण कुछ भी हो सकते हैं !!
लेकिन शिलास्ताम्भों में यह उल्लेख आज भी सभी के लिए कौतुहल का विषय है !! और हर पर्यटक को बरबस अपनी ओर आकर्षित करता है ....
उत्तराखंड में भी अलग-अलग रूप में पुरातन शिलालेखन परिदृश्यत होता है लेकिन भाषा विशेषज्ञों के अभाव, स्थानीय निवासियों व सरकारी तंत्र की उपेक्षा साथ ही, प्रकृति की मार के कारण इस तरह की सांस्कृतिक धरोहरें काल के गर्भ में समाकर लुप्त होती जा रही हैं !! इनके संवर्धन व सरंक्षण हेतु त्वरित उपाय किये जाने की परम आवश्यकता है ..
अलबर्ट हाल म्यूजियम, जयपुर
अलबर्ट हाल म्यूजियम, जयपुर
Sir Samuel Swinton Jacob द्वारा डिजाईन, 1887 में आम जनता के लिए खुले, जयपुर स्थित, अल्बर्ट म्यूजियम, राजस्थान का सबसे पुराना म्यूजियम है. महाराजा राम सिंह इस भवन का उपयोग टाउन हॉल के रूप में करना चाहते थेलेकिन उनके उत्तराधिकारी माधो सिंह द्वितीय ने इस भवन को राजस्थान कला के संग्रहालय के रूप में करना उचित समझा. समृद्ध कला के इस अनूठे संग्रहालय में, पेंटिंग,कार्पेट,हाथी दांत,पत्थर व धातु की कलाकृतियाँ व रंगीन क्रिस्टल पत्थरों पर कलाकारी तथा साथ ही इजिप्त से लायी गयी एक “ ममी “ दर्शकों के कौतुहल को बढाती है. यहाँ राजस्थान ही नही दूसरे स्थानों से लायी गयी अनूठी व दुर्लभ कृतियों को भी संगृहीत किया गया है .इस म्यूजियम का नाम King Edward VII (Albert Edward) के जयपुर आने के कारण अलबर्ट म्यूजियम रखा गया था,
... Albert Hall, Central MuseumJaipur, Rajasthaan .
ये कहाँ आ गए हम !!
ये कहाँ आ गए हम !!
फिरोजशाह तुगलक को वास्तुशिल्प का शौक था और उनकी तुलना रोम के सम्राट अगस्तस से की जाती है।
उन्होंने यमुना तट पर 1354 में पांचवीं दिल्ली ‘कोटला फिरोजशाह’ को स्थापित किया और फिरोजाबाद दुर्ग का निर्माण कराया जिसे फिरोजशाह कोटला किले के नाम से जाना जाता है. उन्होंने 38 साल के शासनकाल में दिल्ली के पास 1200 बाग बगीचे लगवाए। फिरोजशाह तुगलक इतिहास गवाह है कि फिरोजशाह तुगलक के 38 साल के शासनकाल के बाद वंशानुगत झगड़ों के कारण उसकी सल्तनत 1398 में तैमूर के हमले की शिकार हो गई, जिसके कारण दिल्ली में भारी तबाही हुई अब यह किला मात्र तत्कालीन यादों को संजोये एक खंडहर मात्र बनकर रह गया है
मस्तिष्क पर बहुत जोर डाला कि आखिर ये गुफानुमा निर्माण किस उद्देश्य से किया गया होगा !! क्या ये कारागार रहा होगा !! लेकिन, बस अनुमान ही लगाता रह गया क्योंकि वहां न वर्णन पट्ट था न गूगल पर ही कुछ मिल पाया !!
सानिध्य
पर्वत पुत्र स्व. श्री हेमवती नंदन बहुगुणा जी के व्यक्तित्व सानिध्य में कुछ क्षण ..
इंदिरा गांधी जैसी सख्सियत को चुनौती देने वाले दबंग व कद्दावर नेता
बहुगुणा जी जैसे व्यक्तित्व के बाद उत्तराखंड के राजनीतिक पटल पर लम्बे समय
से शून्य बना हुआ है !! के. सी. पन्त जी विद्वान व्यक्ति थे और ऊंचे
ओहदों पर भी रहे लेकिन अपनी व्यक्तिगत राजनीति ही अधिक चमकाते रहे, खण्डूरी
जी जैसे ईमानदार व्यक्तित्व से आस बंधी थी
लेकिन उनका व्यक्तित्व भी " पार्टी अनुशासन " में गुम होकर कर रह गया !!
प्रश्न उठता है क्या ये शून्य कभी भर पायेगा ?? विषय दलगत राजनीति का न
होकर ऐसे राजनीतिक व्यक्तिव के उद्भव को लेकर है जो केंद्र सरकार का केवल
पिछलग्गू बनकर या किसी पार्टी विशेष की सेवा में ही समर्पित न रहकर, प्रदेश
के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन, दलगत राजनीती से हटकर कर सके और
प्रदेश की समर्पित भाव से सेवा कर सके !!..समय गवाह होगा.. हरीश रावत जी,
प्रदेश के प्रति अपने दायित्व निर्वहन में कहाँ तक सफल हो पाते हैं।जड़वा नथ
जड़वा नथ
तीज त्यौहार पर उत्तराखंड के टिहरी जिले की जगत प्रसिद्द " जड़वा नथ ",
वातावरण में सांस्कृतिक लोक रंग भरकर माहौल को और अधिक खुशनुमा बना देती है
..
यहाँ पर एक बात का और जिक्र करना चाहूँगा कि जो कुछ मैं सोच पाता हूँ .. व्यक्त कर पाता हूँ, पिता जी के बाद अगर उसमें किसी का प्रत्यक्ष सहयोग है तो वो मेरी धर्म पत्नी का ही है. हर तरह से इतना अच्छा माहौल देती हैं कि कुछ सार्थक सोच पाता हूँ.
खासकर उत्तराखंड परिवेश से सम्बन्धित जानकारी और हिन्दी लेखन में जब कुछ शब्दों के वर्तनी लेखन में भ्रम उत्पन्न होता है तो वर्तनी शुद्धता के सम्बन्ध में पत्नी की राय अवश्य लेता हूँ .
जब कभी, उनको अपनी रचना पढ़वाता हूँ तो केवल मुस्करा भर देती हैं.. जिससे सम्बल प्राप्त होता है .
कम उम्र में विवाह होने के कारण हमारा सम्बन्ध पति - पत्नी का ही न रहकर मित्रवत् अधिक है।
तस्वीर बेटी दीपिका जयाड़ा ने क्लिक की है.
यहाँ पर एक बात का और जिक्र करना चाहूँगा कि जो कुछ मैं सोच पाता हूँ .. व्यक्त कर पाता हूँ, पिता जी के बाद अगर उसमें किसी का प्रत्यक्ष सहयोग है तो वो मेरी धर्म पत्नी का ही है. हर तरह से इतना अच्छा माहौल देती हैं कि कुछ सार्थक सोच पाता हूँ.
खासकर उत्तराखंड परिवेश से सम्बन्धित जानकारी और हिन्दी लेखन में जब कुछ शब्दों के वर्तनी लेखन में भ्रम उत्पन्न होता है तो वर्तनी शुद्धता के सम्बन्ध में पत्नी की राय अवश्य लेता हूँ .
जब कभी, उनको अपनी रचना पढ़वाता हूँ तो केवल मुस्करा भर देती हैं.. जिससे सम्बल प्राप्त होता है .
कम उम्र में विवाह होने के कारण हमारा सम्बन्ध पति - पत्नी का ही न रहकर मित्रवत् अधिक है।
तस्वीर बेटी दीपिका जयाड़ा ने क्लिक की है.
दिल्ली
दिल्ली
यौवन पर चढ़ती
उजड़ जाती दिल्ली !
सल्तनत बदलती !
निखर जाती दिल्ली ....
गरजती कभी खामोश
रहती थी दिल्ली !
शंहशाही इशारे पर
थिरकती थी दिल्ली ...
अब शंहशाह रहे न
सल्तनत ही बाकी !
अब दिखती यहाँ..
सिर्फ रवानी जवानी.
दिल हिन्दुस्तां का
धड़कता यहाँ है
रौनक से लवलेज़
हर रोज़ खिलती..
कुछ खास दुनिया से
सबसे निराली !!
सरसब्ज सतरंगी..
हम सबकी दिल्ली ...
उजड़ जाती दिल्ली !
सल्तनत बदलती !
निखर जाती दिल्ली ....
गरजती कभी खामोश
रहती थी दिल्ली !
शंहशाही इशारे पर
थिरकती थी दिल्ली ...
अब शंहशाह रहे न
सल्तनत ही बाकी !
अब दिखती यहाँ..
सिर्फ रवानी जवानी.
दिल हिन्दुस्तां का
धड़कता यहाँ है
रौनक से लवलेज़
हर रोज़ खिलती..
कुछ खास दुनिया से
सबसे निराली !!
सरसब्ज सतरंगी..
हम सबकी दिल्ली ...
..विजय जयाड़ा 28/10/14
Saturday 5 December 2015
नमक हराम की हवेली, चांदनी चौक, दिल्ली
नमक हराम की हवेली, चांदनी चौक, दिल्ली
हुकूमतें ताकत से नहीं गद्दारों से कायम की जाती हैं
बचना उन गद्दारों से जिनकी वफायें दूसरों के काम आती हैं.
... विजय जयाड़ा
बचना उन गद्दारों से जिनकी वफायें दूसरों के काम आती हैं.
... विजय जयाड़ा
चांदनी चौक उस सूखे नारियल के समान है जिसे जितना छिलो कुछ नया ही मिलता जाएगा !! घुमक्कड़ी के क्रम में कई फतेहपुरी मस्जिद के पास कई दुकानदारों से पूछने के बाद जब इस हवेली का पता न लगा तो मन निराश होने लगा तभी फतेहपुरी मस्जिद के पास एक सज्जन ने “नमक हराम की हवेली” का सही पता ठिकाना दिया !
आप हवेली का नाम पढ़कर अवश्य चौंक गए होंगे न !! जाहिर सी बात है, हवेलियों के नाम उसके मालिक के नाम पर या कोई सुकून बख्स भाव लिए ही होता है !
फतेहपुरी मस्जिद से दायें मुख्य सड़क से पहले कट से जा रही जिस गली से हमें दायें होना था व इतनी संकरी थी कि दिखी ही नहीं ! खैर, वापस आकर उस गली से अन्दर गए कुछ दूर आगे बढे. अब हम 154 - कूचा घासी राम, “ नमक हराम की हवेली “ के स्थानीय दुकानों से निकलने वाले धुंए के कारण काले पड़ चुके प्रवेश द्वार पर थे. हवेली के मुख्य द्वार के साथ लगे कमरे में मिठाई तैयार की जा रही थी तो तस्वीर में मेरे साथ खड़े सज्जन दौड़कर, स्नेह व आदरपूर्वक एक दोने में कई तरह की मिठाई ले आये.
हवेली के परिवर्तित रूप में हवेली के पुराने निर्माण को इंगित करने में में वहां उपस्थित लोगों ने हमारा पूर्ण सहयोग किया. हवेली के प्रथम तल पर कई किरायेदार हैं और किराया !! वही सत्तर के दशक के आसपास तय.... मात्र 5-10 रूपया !
अब मूल विषय पर आता हूँ. साथियों, मुग़ल काल के अंतिम दौर में मुग़ल स्थापत्य से बनी ये हवेली भवानी शंकर खत्री की थी, भवानी शंकर खत्री और मराठा योद्धा जसवंत राव बहुत अच्छे दोस्त थे और दोनों इंदौर के मराठा महाराजा यशवंत राव होल्कर के यहाँ सेवाएं देते थे, 1776 में जन्मे महाराजा होल्कर की वीरता पर इतिहासकार एन.एस ईमानदार ने उन्हें भारत का नेपोलियन भी कहा है. महाराजा होल्कर ने अंग्रेजों को कई युद्धों में हराया था और एक बार तो 300 अंग्रेज सिपाहियों की नाक काट दी थी. उनकी वीरता व प्रचंडता से भयभीत अंग्रेज उनको परास्त करने के लिए दूसरे राजाओं को अपने पक्ष में कर योजनायें बनांते रहते थे.
11 सितम्बर 1803 को मराठों ने सिंधिया के नेतृत्व में दिल्ली पटपडगंज इलाके में अंग्रेजों और मराठों का द्वितीय युद्ध हुआ. भवानी शंकर ने मराठों से गद्दारी की और अंग्रेजों का साथ दिया, इतिहास में पटपडगंज युद्ध से प्रसिद्ध इस युद्ध में मराठा परास्त हुए और पुरस्कार के तौर पर भवानी शंकर को दिल्ली में जागीर और ये हवेली दी गयी.
जब 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान दिल्ली के नागरिक अंग्रेजों के खिलाफ, बादशाह जफ़र के प्रति अपनी वफादारी जतला रहे थे तब स्थानीय लोगों ने इस हवेली का नाम “ नमक हराम की हवेली “ रख दिया जब भी भवानी शंकर गलियों से गुजरता लोग उसे नमक हराम होने का ताना देते .. तंग आकर कारण भवानी शंकर ने ये हवेली बेच दी थी.
ऐतिहासिक स्थान हमें कुछ न कुछ शिक्षा अवश्य देता है. इस हवेली और अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों से आसानी से इस निर्णय पर पहुंचा जा सकता है कि विदेशी आक्रमणकारी अपनी सैन्य शक्ति की अपेक्षा देश में रहने वाले गद्दारों के बल पर भारत को लूटने व यहाँ अपनी बादशाहत कायम रहे..
मैं इतिहासकार नहीं.. सम्बंधित स्थान पर रहने वाले लोगों और अन्य स्रोतों से प्राप्त जानकारी को साझा करता हूँ.. उद्देश्य सिर्फ ये होता है कि हम अपने अतीत को जानें - समझें - सीख लें ..
Thursday 3 December 2015
यादगार पल !!
यादगार पल !!
विवाह में सम्मिलित होने के पश्चात्, भांजे निर्मल के साथ भ्रमण पर निकल पड़ा।लक्ष्मण झूला से लगभग चार किमी. आगे नीलकंठ मार्ग पर पटना जल प्रपात की तरफ बढ़ रहे थे कि निर्जन सुनसान में अप्रत्याशित रूप से, खुले आसमान के नीचे, स्थानीय युवक द्वारा संचालित चाय की दुकान मिली ! एक चाय 15 रुपये !! लेकिन सुविधाओं की दृष्टि से उस विकट स्थान पर शायद ये दाम अधिक न था !
मुख्य मार्ग से हटकर लगभग दो किमी. की खड़ी चढ़ाई लिए मार्ग पर पैदल चलते हुए हमें थकान महसूस होने लगी थी तो ठंडी व ताजगी से भरपूर हवाओं के सुखद सानिध्य में कुछ समय व्यतीत कर तरोताजा होने को वहीं विश्राम करने लगे। निर्जन घने जंगल से गुजरते हुए किसी बहाने विश्राम का अलग ही आनंद है।
हालांकि इन स्थलों की जानकारी बहुत कम लोगों को है लेकिन आप जब भी धार्मिक नगरी ॠषिकेश आइएगा तो मंदिरों के दर्शनों के साथ-साथ,व्यावसायीकरण की जद में व कंकरीट के निरंतर फैलते जंगलों के कारण सिमटते प्रकृति के इस अप्रतिम नैसर्गिक सानिध्य में कुछ समय अवश्य बिताइएगा। निश्चित ही आपको लगेगा कि अनुपम सौंदर्य लिए इन प्राकृतिक स्थलों पर प्रकृति का सानिध्य सुख प्राप्त किए बगैर ॠषिकेश की यात्रा अधूरी ही है !
गरुड़ चट्टी जल प्रपात ; प्रवेश वर्जित !!
गरुड़ चट्टी जल प्रपात ; प्रवेश वर्जित !!
ॠषिकेश से स्वर्गाश्रम - लक्ष्मण झूला क्षेत्र को परिवहन सेवाओं से जोड़ने वाले बहु प्रतिक्षित, गरुड़ चट्टी पुल पर यातायात प्रारंभ होने के बाद अब यात्रा समय में स्थानीय निवासियों की यातायात समस्या का काफी हद तक समाधान हुआ है। यहाँ से लक्ष्मण झूला लगभग तीन किमी. है। यहीं पर पुराण वर्णित गरुड़ भगवान का प्राचीन मन्दिर भी है।
मन्दिर के साथ- साथ गरुड़ चट्टी जल प्रपात पहुंचने का पैदल मार्ग प्रारम्भ होता है।
दो साल पहले इसी मार्ग से प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर वाटर फॅाल देखने गया था लेकिन इस बार मार्ग के प्रारम्भ में राजा जी नेशनल पार्क वन क्षेत्र होने के कारण " प्रवेश निषेध " बोर्ड लगा देख बढ़ते कदम रुक गए !! वापस आकर गाड़ियों को चैक कर रहे पुलिस कर्मियों से संतुष्ट होना चाहा तो उन्होंने भी आगे बढ़ने को मना कर दिया ! भांजा साथ में था इसलिए जोखिम लेकर आगे बढ़ना उचित नहीं समझा !
नागरिकों की सुरक्षा सरकार का प्रथम दायित्व है लेकिन सोचता हूँ कि क्या केवल सुरक्षा की दुहाई देकर आम जनता को प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य अवलोकन से वंचित रखना उचित है ??
जहाँ एक ओर पर्यटन के विकास हेतु सरकार द्वारा विज्ञापनों पर अपार धन व्यय किया जा रहा है वहीं क्या सरकार ऐसे स्थलों पर " प्रवेश निषेध पट्ट " लगाने की अपेक्षा, आवश्यक सुरक्षा मुहैया करवा कर उत्तराखंड पर्यटन को बढ़ावा देने हेतु दृढ़ संकल्पित नहीं हो सकती !!
इस उम्मीद के साथ कि अगली बार जब आऊँगा तो शायद इस अल्प ज्ञात जल प्रपात के मार्ग की शुरुआत पर " प्रवेश निषेध " पट्ट के स्थान पर " गरुड़ चट्टी जल प्रपात में आपका हार्दिक स्वागत है " लिखा स्वागत द्वार होगा... भाँजे निर्मल के साथ अगले गंतव्य की ओर बढ़ चला। .
हिन्दुस्तानी ख्यालात से छलकती गागर पर इंग्लिस्तानी मुलम्मा !!
खैर ये लाइन तो हुई मेरी वेशभूषा पर ... बहरहाल ..... आप तस्वीर की पृष्ठभूमि के सम्बन्ध में जानने को भी अवश्य उत्सुक होंगे ..तस्वीर की पृष्ठभूमि में गंगा नदी के साथ लक्ष्मण झूला के सामने ॠषि-मुनियों की तपस्थली, तपोवन क्षेत्र है। कभी तपोवन दुनिया में अपनी विशिष्ट बासमती के लिए प्रसिद्ध था !!
लेकिन लगभग तीस-पैंतीस साल पहले, तपोवन क्षेत्र में अनियोजित विकास कुछ यूँ परवान चढ़ा कि क्षेत्र की बासमती, उस विकास की भेंट चढ़ गई !! बासमती की लहलहाती खुशबू बिखेरती धान की सजीव बालियों का स्थान कंक्रीट के ऊँचे-ऊँचे निर्जीव दरख्तों ने ले लिया !!
उत्तराखंड शहीद स्मारक
इतिहास बन जाते हैं अक्सर अस्त हो जाने के बाद
मगर, याद बहुत आते हैं वो, अंधेरा गहराने के बाद !!
मगर, याद बहुत आते हैं वो, अंधेरा गहराने के बाद !!
... विजय जयाड़ा
उत्तराखंड राज्य प्राप्ति आंदोलनकारियों की अमर शहादत से ऐतिहासिक बन चुके रामपुर तिराहे पर पं. महावीर शर्मा, निवासी मुजफ्फरनगर द्वारा, राष्ट्रीय राजमार्ग पर दान में दी गई बेशकीमती 816 वर्ग गज भूमि पर बना उत्तराखंड शहीद स्मारक किसी परिचय का मोहताज नहीं !!
अमर शहीदों को सादर शत् शत् नमन के साथ शहीदों के इस स्मारक को अपने यात्रा संस्मरणों मे भावांजली के रूप में अंकित करने का लोभ संवरण न कर सका।
पलायन रोकने में महत्वपूर्ण : उत्तराखंड पर्यटन
पलायन रोकने में महत्वपूर्ण : उत्तराखंड पर्यटन
उत्तराखंड के लगभग 17000 गावों में से लगभग 1500 गाँव स्थानीय निवासियों के मैदानी भागों में पलायन के कारण निर्जन हो चुके हैं ! इन आंकड़ों से याद आते हैं .. राजस्थान में जैसलमेर के कुलधरा व खाम्भा गाँव !! जहाँ से पलायन कर गए हजारों पालीवाल ब्राह्मण परिवारों के कारण वहां के खंडहर आज भी वहां की तत्कालीन समृद्धि बयां करते दिखाई पड़ते हैं !!!जहाँ एक ओर पहाड़ से महानगरों में आकर युवा अपना भविष्य तलाश रहा है वहीँ कुछ युवा कठिन परिश्रम से उत्तराखंड की स्वच्छ आबोहवा में ही स्थानीय संसाधनों के माध्यम से ही जीविकोपार्जन कर अपनी संस्कृति के मध्य जीवनयापन कर उत्तराखंड में जीवन को गति दे रहे हैं !!
जी हां, तस्वीर में मेरे साथ ऐसे ही एक शालीन, मृदुभाषी व परिश्रमी युवा सुरेन्द्र जी हैं. दूसरे युवाओं की भांति सुरेन्द्र जी ने भी कई वर्षों तक महानगरों में ख़ाक छानी ! दिल्ली, मुंबई और गुजरात में भविष्य तलाशा लेकिन !! कमर तोड़ मेहनत के बाद वही ढ़ाक के तीन पात !! श्रम व्यस्तता व अनियमित आहार-व्यवहार ने सुरेन्द्र जी के शरीर में " यूरिक एसिड " सम्बन्धी विकार भी उत्पन्न कर दिया .
अंत में हार कर अपना मुल्क याद आया......
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज की पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥
....और लगभग एक साल से लक्ष्मण झूला से लगभग तीन किमी की दूरी पर पटना वाटर फाल के पास निर्जन वन में एकमात्र, अपनी इस छोटी सी चाय की दुकान पर पर्यटकों से प्राप्त आमदनी से संतुष्ट हैं.. इस स्थान से सुरेन्द्र जी का गाँव कुछ दूरी पर है.
वाटर फाल के पानी में खनिज अधिकता के कारण सुरेन्द्र जी रोज अपने गाँव से चाय बनाने के लिए 10 लीटर पानी साथ लाते हैं और चाय के साथ ली जाने वाली अन्य खान-पान की वस्तुओं के लिए सड़क तक लगभग 2 किमी.चढ़ाई-उतराई का रास्ता तय करते हैं ! लेकिन अब खुश हैं ..
उत्तराखंड में पर्यटन आधारित रोजगार की बहुत संभावनाएं हैं. प्रकृति ने उत्तराखंड को उपहार में वो अपार नैसर्गिक प्राकृतिक सुन्दरता दी है जो महानगरों में करोड़ों रुपये व्यय करके बनाये जाने वाले मनोरंजन पार्कों में कदापि संभव नहीं !!
मैंने घुमक्कड़ी के दौरान कई ऐसे ऐतिहासिक व प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर स्थल देखे जिनके बारे में पर्यटक तो क्या अधिकतर स्थानीय निवासी भी अनभिज्ञ हैं !! आवश्यकता है...प्राकृतिक सुन्दरता को संरक्षित करते हुए पर्यटन विकास को मद्देनजर रखते हुए सुनियोजित त्वरित, मध्यम व दीर्घकालिक फलदायक नीतियाँ बनाकर और उन पर ईमानदारी से अमल करके पर्यटकों की पहुँच से दूर और अज्ञात ऐतिहासिक व प्राकृतिक स्थानों को पर्यटन मानचित्र पर लाने की आवश्यकता है, . इस कार्य में सरकार ग्राम सभावों के माध्यम से स्थानीय निवासियों का भी सहयोग ले सकती है जिससे स्थानीय युवाओं को रोजगार उपलब्ध हो सके फलस्वरूप पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ के काम आ सके !!
Sunday 8 November 2015
नादिर शाही की मूक गवाह : सुनहरी मस्जिद, चांदनी चौक
नादिर शाही की मूक गवाह
सुनहरी मस्जिद, चांदनी चौक
अमानवीयता व निरंकुशता के विरोध पर एक नारा सुना था .. “ नादिर शाही --- नहीं चलेगी !! नहीं चलेगी !! “. कब - क्यों और कैसे नादिर शाह चरित्र पर ये नारा बना ?? इस चरित्र को गहराई से जानने की जिज्ञासा मुझे चांदनी चौक के मध्य में भाई मतिदास चौक के सामने व गुरुद्वारा शीशगंज साहिब के पास स्थित सुनहरी मस्जिद तक ले गई ! जो दिल्ली के इतिहास की सबसे क्रूरतम अमानवीय घटना की चश्मदीद गवाह है !13 फरवरी 1739 को बड़ी सेना होने के बावजूद भी, बिना अधिक प्रतिरोध के, दिल्ली का मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह, ईरान के बादशाह नादिर शाह से करनाल युद्ध हार गया, दोनों साथ-साथ दिल्ली आये और मुहम्मद शाह ने दिल्ली की चाबियाँ नादिर शाह को सौंप दी..
युद्ध के कारण दिल्ली में कीमतें आसमान छूने लगी तो नादिर शाह के आदेश पर ईरानी सैनिकों ने व्यापारियों से कीमतें कम करने को कहा, लेकिन व्यापारी राजी न हुए..
इस माहौल में सैनिकों और व्यापारियों में तकरार होने लगी. इसी बीच किसी ने अफवाह फैला दी कि लाल किला में नादिर शाह की महिला अंगरक्षक ने हत्या कर दी है, इस अफवाह के बाद सैनिकों और नागरिकों में झडपें बढ़ने लगी और नागरिकों ने नादिर शाह के सैनिक को मार डाला.
यह सुनकर नादिर शाह गुस्से में तिलमिला उठा. 22 मार्च 1739 के दिन नादिर शाह सुबह 8 बजे अपने लाव लश्कर के साथ, चांदनी चौक के मध्य, शीशगंज गुरुद्वारा के साथ स्थित सुनहरी मस्जिद पर आया और उसने इसी छत पर ..(जहाँ मैं खड़ा हूँ ) खड़े होकर, वातावरण में नगाड़ों की भयानक ध्वनियों के मध्य, अपनी म्यान से तलवार हवा में लहराते हुए अपने सैनिकों को कत्लेआम और लूटपाट करने करने का आदेश दिया.
अंत में युद्ध हार चुके दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह द्वारा स्वयं रहम की भीख मांगने पर, अपराह्न 3 बजे नादिर शाह ने कत्लेआम रोकने का आदेश दिया !! और अपनी तलवार को म्यान में रखा !
साथियों, इतिहास हमें सुधार के अवसर देता है। सोचता हूँ कि आक्रान्ता या अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति का कोई सगा नहीं होता ! उसका मानवीयता या सही-गलत से भी कोई लेना-देना नहीं होता अत: उसका कोई मजहब नहीं होता. अपने अति महत्वाकांक्षी व नापाक इरादे पूरे करने के लिए वह अमानवीयता की किसी भी हद को पार कर सकता है.उसका मजहब, फरेब, दहशत फैलाना, लूटमार, अमानवीय कृत और कत्लेआम कर येनकेन प्रकारेण हेतु साधना होता है.
जिन ईरानी सैनिकों के दम पर नादिर शाह ने ईरान की अर्थव्यवस्था को फर्श से अर्श पर पहुंचाया उन्हीं ईरानी सैनिकों की निष्ठा पर संदेह मात्र होने पर तुर्क व उज्बेक सैनिकों द्वारा उनकी सामूहिक हत्या का षढयंत्र रचने वाले अति महत्वाकांक्षी नादिर शाह का पर्दाफाश होने पर उसके ही सैन्य कमांडरों द्वारा उसकी हत्या कर दी गई थी।
सुनहरी मस्जिद. गुरुद्वारा शीशगंज साहिब व भाई मति दास चौक, मुग़ल और अंग्रेजों के काल में क्रूरता की हदें पार करने वाली कई घटनाओं के चश्मदीद गवाह हैं , यह स्थान आज दिल्ली का व्यस्त कारोबारी इलाका है.
Saturday 7 November 2015
नादिर शाही की मूक गवाह : सुनहरी मस्जिद, चांदनी चौक
नादिर शाही की मूक गवाह\
सुनहरी मस्जिद, चांदनी चौक
अमानवीयता व निरंकुशता के विरोध पर एक नारा सुना था .. “ नादिर शाही --- नहीं चलेगी !! नहीं चलेगी !! “. कब - क्यों और कैसे नादिर शाह चरित्र पर ये नारा बना ?? इस चरित्र को गहराई से जानने की जिज्ञासा मुझे चांदनी चौक के मध्य में भाई मतिदास चौक के सामने व गुरुद्वारा शीशगंज साहिब के पास स्थित सुनहरी मस्जिद तक ले गई ! जो दिल्ली के इतिहास की सबसे क्रूरतम अमानवीय घटना की चश्मदीद गवाह है !13 फरवरी 1739 को बड़ी सेना होने के बावजूद भी, बिना अधिक प्रतिरोध के, दिल्ली का मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह, ईरान के बादशाह नादिर शाह से करनाल युद्ध हार गया, दोनों साथ-साथ दिल्ली आये और मुहम्मद शाह ने दिल्ली की चाबियाँ नादिर शाह को सौंप दी..
युद्ध के कारण दिल्ली में कीमतें आसमान छूने लगी तो नादिर शाह के आदेश पर ईरानी सैनिकों ने व्यापारियों से कीमतें कम करने को कहा, लेकिन व्यापारी राजी न हुए..
इस माहौल में सैनिकों और व्यापारियों में तकरार होने लगी. इसी बीच किसी ने अफवाह फैला दी कि लाल किला में नादिर शाह की महिला अंगरक्षक न हत्या कर दी है, इस अफवाह के बाद सैनिकों और नागरिकों में झडपें बढ़ने लगी और नागरिकों ने नादिर शाह के सैनिक को मार डाला.
यह सुनकर नादिर शाह गुस्से में तिलमिला उठा. 22 मार्च 1739 के दिन नादिर शाह सुबह 8 बजे अपने लाव लश्कर के साथ, चांदनी चौक के मध्य, शीशगंज गुरुद्वारा के साथ स्थित सुनहरी मस्जिद पर आया और उसने इसी छत पर ..(जहाँ मैं खड़ा हूँ ) खड़े होकर, वातावरण में नगाड़ों की भयानक ध्वनियों के मध्य, अपनी म्यान से तलवार हवा में लहराते हुए अपने सैनिकों को कत्लेआम और लूटपाट करने करने का आदेश दिया. लगभग 7 घंटे तक वो इसी छत पर ( जहाँ मैं खड़ा हूँ) चढ़कर कत्लेआम देखता रहा ,इस दौरान लूटमार, कत्लेआम और लोगों के घर, खंडहरों में तब्दील होते रहे. क्रूरता के नंगे नाच को देख, मानवीयता बेबस हो शर्मशार होती रही !! मजहब से बेपरवाह, हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख या जो भी सामने आता उसका क़त्ल कर दिया जाता !! क्रूरता की जद में 7 घंटे में लगभग बीस से तीस हजार निरीह व निर्दोष नागरिकों को क़त्ल कर दिया गया. इस प्रकार दिल्ली के इतिहास पर सदा के लिए बदनुमा दाग लग गया !!
अंत में युद्ध हार चुके दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह द्वारा स्वयं रहम की भीख मांगने पर, अपराह्न 3 बजे नादिर शाह ने कत्लेआम रोकने का आदेश दिया !! और अपनी तलवार को म्यान में रखा !
साथियों, इतिहास हमें सुधार के अवसर देता है। सोचता हूँ कि आक्रान्ता या अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति का कोई सगा नहीं होता ! उसका मानवीयता या सही-गलत से भी कोई लेना-देना नहीं होता अत: उसका कोई मजहब नहीं होता. अपने अति महत्वाकांक्षी व नापाक इरादे पूरे करने के लिए वह अमानवीयता की किसी भी हद को पार कर सकता है.उसका मजहब, फरेब, दहशत फैलाना, लूटमार, अमानवीय कृत और कत्लेआम कर येनकेन प्रकारेण हेतु साधना होता है.
जिन ईरानी सैनिकों के दम पर नादिर शाह ने ईरान की अर्थव्यवस्था को फर्श से अर्श पर पहुंचाया उन्हीं ईरानी सैनिकों की निष्ठा पर संदेह मात्र होने पर तुर्क व उज्बेक सैनिकों द्वारा उनकी सामूहिक हत्या का षढयंत्र रचने वाले अति महत्वाकांक्षी नादिर शाह का पर्दाफाश होने पर उसके ही सैन्य कमांडरों द्वारा उसकी हत्या कर दी गई थी।
सुनहरी मस्जिद. गुरुद्वारा शीशगंज साहिब व भाई मति दास चौक, मुग़ल और अंग्रेजों के काल में क्रूरता की हदें पार करने वाली कई घटनाओं के चश्मदीद गवाह हैं , यह स्थान आज दिल्ली का व्यस्त कारोबारी इलाका है.
Saturday 31 October 2015
पांडव कालीन दूधिया भैरव बाबा मंदिर, पुराना किला,दिल्ली
हमारे श्रद्धा व विश्वास के स्थल
पांडव कालीन दूधिया भैरव बाबा मंदिर, पुराना किला,दिल्ली
धर्मपत्नी कई दिनों से पुराना किला, भैरव मंदिर दर्शन को कह रही थी, आज पुन: आग्रह किया तो टाल न सका. दरअसल मुझे मंदिरों में में भीड़ और धक्का-मुक्की से परहेज है इसी कारण पर्व के दिनों में मंदिर नहीं जाता. सोचता हूँ ईश्वर तो कण-कण में व्याप्त है यदि विशेष महातम्य के कारण किसी स्थान विशेष को किसी देवी या देवता से जुड़ गया है तो वहां पर, किसी दिन विशेष की अपेक्षा, देवता का सदैव वास होना चाहिए. खैर, ये तो व्यक्तिगत श्रद्धा का विषय है लेकिन मैं श्रद्धा के साथ स्थान की प्राचीनता व इतिहास के सम्बन्ध में भी रूचि रखता हूँ.
पिछली बार जब आपसे, पुराना किला की बाहरी दीवार से लगे, “ पांडव कालीन किलकारी भैरव बाबा मंदिर “ के सम्बन्ध में जानकारी साझा की थी तब इस मंदिर से 100 मी. की दूरी पर बने “ पांडव कालीन दूधिया भैरव बाबा “ मंदिर की जानकारी भी साझा करने का वादा किया था, आज मौका मिला तो दूधिया भैरव बाबा मंदिर दर्शन को चल पड़ा .
सामान्यत: यह माना जाता है कि भैरव बाबा, फल-फूल से नहीं बल्कि मदिरा से ही प्रसन्न होते हैं और इस मान्यता के चलते देश के विभिन्न प्रसिद्द भैरव मंदिरों के साथ-साथ “ पांडव कालीन किलकारी भैरव बाबा मंदिर “, पुराना किला, दिल्ली में भी भोग के रूप में मदिरा चढ़ाई जाती है, लेकिन सात्विक श्रद्धालु “ पांडव कालीन दूधिया भैरव बाबा मंदिर “ में भैरव बाबा को कच्चे दूध व गुड़ का भोग लगाकर बाबा को प्रसन्न करते हैं. हालांकि “ पांडव कालीन किलकारी भैरव बाबा मंदिर “ की अपेक्षा, एकदम समीप होने के बावजूद भी श्रद्धालुओं का इस मंदिर की तरफ कम रुझान है.
भैरव बाबा को दूध का भोग लगाये जाने वाले देश के एकमात्र प्राचीन मंदिर की कथा महाभारत से जुडी है. महाभारत काल से जुड़े होने के बावजूद, सलीम गढ़ किले से मिले कुछ मिटटी के बरतन अतिरिक्त दिल्ली में उस काल के अवशेष विद्यमान नहीं हैं लेकिन पुराना किला को महाभारत काल से जोड़कर देखा जाता है और “पांडवों का किला” भी कहा जाता है.
कहा जाता है कि महाभारत प्रारंभ होने से पूर्व कुंती ने स्वयं यहाँ आकर बाबा को दूध चढ़ा कर,दूध की लाज रखने के बदले में पांडवों की विजय व कुशलता की गुहार लगाई थी. बाबा ने कुंती को निराश नहीं किया और पांडवों की विजय व कुशलता का आशीर्वाद दे दिया ..माना जाता है कि तभी से यहाँ दूध का भोग लगाया जाता है. चढ़ाया गया दूध प्रसाद के रूप में कौवों को पिलाया जाता है आश्चर्य की बात ये है कि मांसाहारी कौवे ये दूध पीते हैं, जिसे मन्नत पूर्ण होने का लक्षण भी माना जाता है.
आज की विशेषता ये भी रही कि पहली बार धर्मपत्नी ने ही छायांकन कार्य किया .. 31.10.15
Monday 19 October 2015
कलियुग में नंदी महाराज
कलियुग में नंदी महाराज
कहा जाता है एक बार रावण को अपनी शक्ति पर इतना घमंड हुआ कि अपनी शक्ति आजमाने के लिए रावण ने कैलाश पर्वत को ही उठा कर शिव निवास को असंतुलित कर हलचल मचा दी !!शिव अनुगामी नंदी महाराज को रावण की इस हरकत पर बहुत गुस्सा आया और उन्होंने रावण के हाथ को अपने पैर से इतने जोर से दबाया कि रावण त्राहिमाम चिल्लाने लगा !!
नंदी महाराज ने तब तक रावण के हाथ को दबाये रखा जब तक वह शिव शरणागत होकर शिव आराधना में लीन नहीं हो गया.
तब तो एक रावण ने एक शिखर कैलाश को उठाने का दुस्साहस कर अनिष्ट को निमंत्रण दिया था लेकिन अब तो कई रावण मिलकर पूरी दुनिया में समाज के विभिन्न शिखरों को उठाकर, दुनिया को असंतुलित कर के हलचल मचाने का काम कर रहे हैं !!
नि:संदेह !! कलियुग में नंदी महाराज का काम भी काफी व्यस्ततापूर्ण व कठिन हो गया होगा ! क्यों न हम भी अपने स्तर पर नंदी महाराज के काम में सहयोग कर शिव कृपा के भागी बनें !!
भव्य रूप में नंदी महाराज का दर्शन सुख मिला तो भला श्री सानिध्य में फोटो क्लिक करवाने का लोभ संभरण कैसे कर सकता था ..
Sunday 18 October 2015
परमार्थ निकेतन आश्रम, ऋषिकेश
हिमालय
की गोद में गंगा के किनारे सन 1942 में संत सुखदेवानंद महाराज जी द्वारा
स्थापित व श्रद्धालुओं के निवास हेतु 1000 से अधिक कमरों को स्वयं में
समाहित किये हुए, ऋषिकेश का सबसे बड़ा आश्रम," परमार्थ निकेतन आश्रम ",
प्रभात की सामूहिक पूजा, योग एवं ध्यान, सत्संग, व्याख्यान, कीर्तन,
सूर्यास्त के समय गंगा-आरती आदि से धर्म क्षेत्र में सेवारत है. आश्रम को
देखकर मन-मस्तिष्क में अपूर्व शान्ति के साथ-साथ कबीर दास जी का ये दोहा उभर आया ..
स्वार्थ में आसक्ति तो बिना छाया के सूखी लकड़ी है और सदैव संताप देने
वाली है और परमार्थ तो पीपल - वृक्ष के समान छायादार सुख का समुद्र एवं
कल्याण की जड़ है, अतः परमार्थ को अपना कर उसी रास्ते पर चलो.
स्वारथ सुखा लाकड़ा, छाँह बिहूना सूल |
पीपल परमारथ भजो, सुखसागर को मूल ||
.. संत कबीर
पीपल परमारथ भजो, सुखसागर को मूल ||
.. संत कबीर
Thursday 1 October 2015
आध्यात्म व प्रकृति का अनूठा संगम ; "झिलमिल गुफा " ऋषिकेश
आध्यात्म व प्रकृति का अनूठा संगम
"झिलमिल गुफा " ऋषिकेश
ऋषिकेश , मणिकूट पर्वत स्थित , प्रसिद्ध नीलकंठ महादेव मंदिर से सभी परिचित हैं. यदि लक्ष्मण झूला से चलें तो नीलकंठ मंदिर पहुँचने से करीब आधा किमी पहले बायीं तरफ एक सड़क निकलती है उस पर 4-5 किमी कार या बाईक से चलने और फिर लगभग आधा घंटा पैदल चलने पर आप इन गुफाओं से साक्षात्कार कर सकते हैं.
मणिकूट पर्वत, कदली वन की इन गुफाओं में “ झिलमिल गुफा “ जिसका नाम झिलमिल बाबा द्वारा यहाँ तपस्या करने के कारण पड़ा, मुख्य आकर्षण का केंद्र है. पैदल मार्ग प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर है लेकिन जंगल से होकर है. जल अवक्षेपित खनिजों से प्राकृतिक रूप से बनी यह गुफा कुदरत की अप्रतिम चित्रकारी जान पड़ती है जल प्रवाह के साथ आये खनिजों के अवक्षेपण से गुफा का आतंरिक भाग दृष्यांकित सा लगता है गुफा की छत, छिद्र्नुमा खुली है जो वायु के सुचारू आवागमन को सुनिश्चित करती है, इस छिद्र से रात्री समय में बादल रहित आसमान में तारों को निहारने का अपूर्व आनंद प्राप्त होता है.
प्राचीन समय में ऋषि मुनि निर्विघ्न तपस्या हेतु हिमालय में निर्जन स्थान व गुफाओं का चयन करते थे. गुरु गोरख नाथ जी द्वारा इस गुफा में तपस्या किये जाने के कारण यह तपस्या गोरखनाथ जी को समर्पित है, गुफा में उनकी मूर्ती है और कुछ सन्यासी रहते हैं.
धार्मिक भावना से हर श्रृद्धालु नीलकंठ मंदिर जाना चाहता है लेकिन ये गुफा भी कम पवित्र नहीं .. साथ ही यहाँ प्रकृति और आध्यात्म के संगम स्नान से हम स्वयं को हल्का अवश्य महसूस कर सकते हैं.
मार्ग में चाय-पान की अस्थायी दुकानें व रात्री विश्राम के लिए सस्ती व्यवस्था है. यदि मुझे ज्ञात होता कि यहाँ रात रुकने की व्यवस्था है तो शोरगुल से दूर अनुपम प्रकृति के सानिध्य में एक रात अवश्य बिताता .. यदि आप ऋषिकेश, नीलकंठ मंदिर दर्शन करना चाहते हैं तो “ झिलमिल गुफा “ भी अवश्य जाइयेगा .. यहाँ से आगे पांच मिनट पैदल चलकर आप गणेश गुफा के दर्शन भी कर सकते हैं..
जानकारी के अभाव में नीलकंठ आने वाले यात्रियों में से बामुश्किल 4-5 % यात्री यहाँ आ पाता है।
स्वातंत्र्य वीर धाम ; “ स्वतंत्रता सेनानी स्मारक “ सलीमगढ़, लाल किला
स्वातंत्र्य वीर धाम
“ स्वतंत्रता सेनानी स्मारक “ सलीमगढ़, लाल किला
ऐतिहासिक स्थल हमें उचित और अनुचित का बोध कराते हैं, इन स्थलों पर पहुंचकर हम यहाँ की प्राचीनता, वैभव, वास्तु, स्थापत्य तत्कालीन व्यवस्था, सम्बंधित तथ्यों व घटनाओं को देख-जान कर आश्चर्यचकित हो जाते हैं, लेकिन ये भी सत्य है कि इन स्थलों में हम अक्सर अपनापन अवश्य तलाशते हैं अर्थात ऐसा कुछ जिस पर हमें गर्व हो.
आइये, आज ऐसे ही गुमनाम ऐतिहासिक स्थल पर चलते हैं जहाँ की प्राणवायु आपके हृदयतल को झंकृत कर देगी और ह्रदय का हर स्पंदन, जोश व गर्व से गुन-गुनाने को मजबूर कर देगा ..
“ कदम-कदम बढ़ाये जा ... ख़ुशी के गीत गाये जा ...”
और कदम से कदम मिलाती आजाद हिन्द फौज के जांबाज सिपाहियों की टुकड़ी से सलामी लेते नेता जी सुभाष चंद्र बोस का दृश्य मानस पटल पर बरबस ही उभर आयेगा !!
जी हाँ.. आज आजाद हिन्द फ़ौज (INA) के स्वातंत्र्य वीरों को समर्पित “ स्वतंत्रता सेनानी स्मारक “ सलीमगढ़, लाल किला की ही बात कर रहा हूँ. लेकिन यह बताने में दुःख होता है कि आजादी के लिए यातनाएं सहने वाले और हँसते-हँसते फांसी के फंदे को स्वीकारने वाले, हमारे वर्तमान के लिए अपना भविष्य दाँव पर लगाने वाले स्वातंत्र्य वीरों के इस धाम की चमक, लाल किला की मुग़ल कालीन भव्य इमारतों की चकाचौंध में धूमिल होती जान पड़ती है. लाल किला में लगभग 10 हजार पर्यटक हर रोज आता है लेकिन यहाँ शायद 10 पर्यटक भी नहीं पहुँचते !!
1546 में सूर वंश के सलीम शाह द्वारा बनवाया गया सलीमगढ़ किला, लाल किले के उत्तरी पूर्वी छोर से एक छोटे से मेहराबदार सेतु द्वारा लाल किले से जुड़ा है. मुग़ल काल में इस किले को राजकीय बंदियों को रखने में इस्तेमाल किया जाता था.यह लाल किला परिसर का ही भाग है औरंगजेब ने मुराद बक्श को और साहित्य,संगीत व काव्य प्रेम के कारण बड़ी बेटी जेबुनिशा को 21 वर्ष, मृत्यु तक यहीं कैद रखा था. हुमायूँ ने निर्वासन उपरांत दिल्ली पर दुबारा अधिकार के क्रम में यहाँ तीन दिन डेरा जमाये रखा. 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध रणनीति बनाने के लिए बादशाह बहादुर शाह जफ़र यहाँ मीटिंग करते थे और इस किले की दीवार पर चढ़कर अपनी तोपों को अंग्रेजों पर निशाना साधते देखते थे. रंगून निर्वासन से पूर्व बदनसीब बादशाह जफ़र को कुछ समय यहाँ कैद रखा गया.
1945 में यहाँ आजाद हिन्द फ़ौज के सिपाहियों व अधिकारियों को मुग़ल काल में बनाये गयी इन दमघोटू (तस्वीर में) कोठरियों में बंदी बनाकर रख कर उन पर देश द्रोह का मुकदमा चलाया गया. भीषण यातनाओं व बीमारी के चलते कई स्वातंत्र्य वीर वीरगति को प्राप्त हुए. 1995 में इस स्थल को “ स्वतंत्रता सेनानी स्मारक “ घोषित कर दिया गया. उस समय बंदीगृह के रूप में प्रयोग की जाने वाली दो बैरक आज संग्रहालय के रूप विकसित की गयी हैं. यह क्षेत्र वनाच्छादित व सुनसान है मेरे जैसा जिज्ञासु ही शायद कोई यहाँ पहुँचता हो. शायद !!! सामान्यजन निर्जनता के कारण ही सुरक्षाकर्मी, मुझे और मेरे साथी को बहुत गौर से खोजी निगाहों से देख रहे थे !! बंदीगृह में ढेर सारे चमगादड़ों का साम्राज्य दिखा..
कहा जाता है कि चांदनी रात में काला गाउन पहले मुग़ल शहजादी जेबुनिशा की प्रेतात्मा स्वलिखित कवितायेँ गाती देखी जाती है और आजाद हिन्द फ़ौज के बंदी सैनिकों की यातनाओं के दौरान चीखें व कराह आज भी इस निर्जन सुनसान वातावरण के सन्नाटे को तोड़ती सुनी जाती हैं.
यदि आप लाल किले में अपनापन तलाश रहे हैं तो मुग़ल कालीन भवनों को निहारने से पहले छत्ता बाजार पार करते ही नौबत खाने से पहले बाएं हाथ की तरफ, लाल किला बावड़ी व सलीम गढ़ किले की तरफ निर्जन क्षेत्र की ओर मुड़ जाइए. स्वातंत्र्यवीर निर्जनता में आपको पाकर प्रसन्न होंगे और देशप्रेम का आशीर्वाद अवश्य देंगे ...वापसी में बेशक लाल किले के मुग़ल कालीन वैभव को निहारना न भूलियेगा ..
Wednesday 30 September 2015
पहाड़ का " हरा सोना " ; “ बांज ”
पहाड़ का " हरा सोना " ; “ बांज ”
हरयुं भरयुं
मुल्क मेरु
रौंत्याळु__
कुमाऊँ-गढ़वाळ...
बानि-बानि का
डाळा बुटळा,
डांडी-कांठी...
उंधारि उकाळ..
“हरयुं सोनु”__
बांट्दा दिखेदंन
झुमरयाला...
बांज का बजांण....
हरयुं भरयुं__
मुल्क मेरु
रौंत्याळु__
कुमाऊँ-गढ़वाल.......
मुल्क मेरु
रौंत्याळु__
कुमाऊँ-गढ़वाळ...
बानि-बानि का
डाळा बुटळा,
डांडी-कांठी...
उंधारि उकाळ..
“हरयुं सोनु”__
बांट्दा दिखेदंन
झुमरयाला...
बांज का बजांण....
हरयुं भरयुं__
मुल्क मेरु
रौंत्याळु__
कुमाऊँ-गढ़वाल.......
....विजय जयाड़ा 07.04.15
मुक्त पशु चराई के कारण बांज के नवांकुर नष्ट हो रहे हैं. वन संकुचन के कारण चारे और ईंधन के लिए बार-बार कटाई, बांज को ठूंठ (सूखे पेड़) में परिवर्तित कर रही है.
ऊँचाइयों पर सेब, आलू, चाय के विकसित होते बागान, बांज को लील रहे हैं. ऐसे में समय रहते बांज के अधिकाधिक रोपण, संवर्धन व संरक्षण की आवश्यकता है. कहीं ऐसा न हो, “ विकास “ के नाम पर अनियोजित व अनियंत्रित कटान तथा विपणन में सुलभ फायदेमंद कृषि के लोभ में किसान का मित्र, " पहाड़ का हरा सोना ",
चरण आशीर्वाद, भरत मंदिर, ऋषिकेश
चरण आशीर्वाद, भरत मंदिर, ऋषिकेश
विगत में मैंने पोस्ट्स के माध्यम से श्रृंखलाबद्ध रूप में आपके साथ, अर्जित जानकारी की अधिकतम सीमाओं तक पहुंचकर, ऋषिकेश शहर के संस्थापक मंदिर, भरत मंदिर (ऋषिकेश नारायण) के इतिहास व धार्मिक महत्व से जुडी कई जानकारियाँ, नि:स्वार्थ भाव व पवित्र मन से सेवा रूप में साझा की, यदि उत्साह, अज्ञानता व भूलवश कुछ मिथ्या लिख दिया हो तो ऋषिकेश नारायण जी (भरत जी ) से दंडवत क्षमा याचक हूँ ... भरत मंदिर में उस समय उपस्थित युवा पुजारी जी का भी सहृदय ऋणी हूँ जिन्होंने मुझे पूरा सहयोग दिया ..
ऋषिकेश जाइएगा तो त्रिवेणी घाट के पास, भरत मंदिर दर्शन अवश्य कीजियेगा. अक्षय तृतीया के दिन दर्शन का विशेष लाभ है. इस दिन मंदिर की 108 परिक्रमाएँ, बद्रीनाथ जी के दर्शन के तुल्य हैं और मनोवांछित फलदायक हैं. इसी पवित्र दिन ऋषिकेश नारायण जी के पवित्र चरणों को दर्शनार्थ अनावर्णित किया जाता है. तत्कालीन टिहरी नरेश प्रदुम्न शाह ने ऋषिकेश क्षेत्र को भरत मंदिर के नाम किया था लेकिन उसके बाद सम्बन्धित जमीन का मंदिर के महंत ने अपने पुत्रों के नाम व्यक्तिगत पट्टा बना दिया ..
मंदिर में प्रतिष्ठित कुछ प्राचीन मूर्तियों की तस्वीरें कमेन्ट बॉक्स में साझा कर रहा हूँ .. सम्बंधित पोस्ट्स श्रृंखला पर आप सम्मानित साथियों का भरपूर उत्साहवर्धन मिला .. तहेदिल से आभारी हूँ
अब पुजारी जी द्वारा दिए गए ऋषिकेश नारायण जी के चरण आशीर्वाद पश्चात, भरत मंदिर से जुडी जानकारियों को विराम देता हूँ.. सभी सम्मानित साथियों के ऊपर सपरिवार, ऋषिकेश नारायण जी की कृपा बनी रहे ..
Sunday 27 September 2015
रेडियो ऑस्ट्रेलिया से प्रसारण : लाल किला बावड़ी व अग्रसेन की बावड़ी,कनॉट प्लेस
लाल किला बावड़ी व अग्रसेन की बावड़ी,कनॉट प्लेस
"सूनी खड़ी ताकती दीवारें बयां करती कुछ ख़ास हैं.
रौनकें बस्ती थी यहाँ , अब फिर उनका इंतज़ार है".
(विजय जयाड़ा)
http://www.sbs.com.au/
इस लिंक पर क्लिक कर कार्यक्रम को अवश्य सुनियेगा.. सादर
ऐतिहासिक लेखों पर आपके अपार उत्साहवर्धन से ऊर्जा पाकर, पर्यटकों के आकर्षण से दूर सुनसान, उपेक्षित ऐतिहासिक महत्व के स्थानों पर जाकर जानकारी एकत्र कर परिदृश्य में लाने का क्षुद्र प्रयास करता हूँ.. आज “ लाल किला बावड़ी व अग्रसेन की बावड़ी,कनॉट प्लेस “ केन्द्रित, रेडियो कार्यक्रम SBS रेडियो ऑस्ट्रेलिया से प्रसारित हुआ...
जिसमें मेरा आलेख व कुमुद मिरानी जी द्वारा सम्बंधित विषय पर मेरा साक्षात्कार प्रसारित हुआ... आप सभी गुणी साथियों का तहेदिल से धन्यवाद ... हार्दिक धन्यवाद सम्मानित Shivnath Jha जी आपने इस अल्पज्ञ को इतने बड़े मंच तक पहुँचाया व कार्यक्रम की प्रस्तुतकर्ता, सम्मानिता Kumud Merani जी .. आपका सहज व्यवहार मुझमे आत्मविश्वास उत्पन्न करता है .
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